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* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * जिसमें हीरे, जवाहरात, पन्ने, मोती, लाल जड़े हुए थे। वह थाल कहाँ पर है?" उस सफाई करने वाले ने उत्तर दिया- "महाराज ! वह बाहर गन्दगी से भरा हुआ पड़ा है।” राजा ने कहा - " ला उसे खाली करके ।" वह थाल खाली कर लाया । काफी लाल गिर चुके हैं, केवल एक-दो लाल बाकी बचे हैं। राजा मन में सोचता है - ' अरे सवारी दी थी नीचे के लिए, परन्तु रख ली ऊपर के लिए।' राजा ने थाल लिया, उसमें से एक लाल निकाला और कहा - " तुम राजसुनार के पास जाओ, कहना इसकी जितनी कीमत है वो दे दो, राजा ने कहा है ।" गया, ले आया, सवा लाख रुपया ।
राजा ने कहा - " अरे भोले इंसान ! यदि तू पाँच पीढ़ी भी बैठा-बैठा इस थाल का धन खाता तो भी खत्म न होता । तूने तो यूँ ही गन्दगी ढोने में थाल को बेकार कर दिया है; हीरे, पन्ने, जवाहरात, लाल इत्यादि गँवा दिये। अब रोता है, चिल्लाता है - हाय मैंने अनमोल लाल गन्दगी में रुला दिये ।" इसी प्रकार आचार्यश्री कह रहे हैं-अय मानव ! पुण्य योग से तुम्हें यह अनमोल मानव-जीवन मिला, मनुष्य का शरीर सोने के थाल तुल्य, पाँच लाल - इन्द्रियों के समान हैं, महान् पुण्योदय से नर की देह पाई। जोकि मानव विषयों में लिप्त होकर गँवा रहा है। जब अन्त समय समीप आता है तब रोता है, चिल्लाता है और कहता है- “वैद्य जी ! चाहे आप मेरी सारी उम्र की कमाई ले लो। किन्तु मुझे मरते समय ५ मिनट के लिए जीवनदान दे दो ।" अरे ! लाखों रुपये देकर भी हम ५ मिनट के लिए जीवन नहीं पा सकते ? तो सारी जिन्दगी कैसे उपलब्ध हो सकती है । इसलिए हम ऐसे ही विषय-वासनाओं में अनमोल श्वासों को खो रहे हैं। यदि हम श्वासों का मूल्य जानेंगे और अपने मानव जीवन को इस भव सिन्धु से पार कर ले जायेंगे, तो ही हमारे परिश्रम की सफलता है ।
अमृत से धोये पैर
दूसरा कथानक - “पादशौचं विधत्ते पीयूषेण ।”
बहुत वर्षों तक तप करके एक तपस्वी ने अमृत कलश की प्राप्ति की । अर्थात् एक देव ने तपस्या से प्रसन्न होकर तपस्वी महात्मा को अमृत का कलश दिया । एक व्यक्ति जो दरिद्र, दीन, हीन है, रोगों से घिरा हुआ है, वह आत्म-शान्ति पाने के लिए उसके सामने आया। उसने महात्मा की तन-मन से सेवा की, सेवा से प्रसन्न होकर तपस्वी महात्मा ने अमृत कलश उसको दे दिया । " अरे भाई ! ले; यदि तू इसका सेवन करेगा, तेरा जीवन निखर जायेगा, रोगमुक्त होकर स्वस्थ - प्रसन्न हो जायेगा ।" अमृत का कलश उस व्यक्ति को दे दिया। वह अमृत कलश लेकर रास्ते