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* मानव-जीवन की सार्थकता *
* २१ *
एक राजा था, जिसकी जवानी ढलती जा रही थी। लेकिन राजा के यहाँ सन्तान के दर्शन नहीं हो रहे थे। आप जानते हैं जिस घर में सन्तान न हो, वह घर सूना-सूना नजर आता है। गृहस्थों के लिए दीपक का रूप पुत्ररत्न है। जिसे कुल-दीपक कहते हैं। जैसे रात्रि का दीपक चन्द्रमा है, दिन का दीपक सूर्य है, वैसे ही कुल का दीपक पुत्र है। पंजाबी का कवि बहुत सुन्दर शब्दों में कह रहा है
“सुन्ना घर पुत्त दे बाजों, जित्थे दिने अन्धेरा ए। बाज भरावां दे हर वेले, सुन्ना चार चुफेरा ए॥ सुना दिल मूर्ख बन्दे दा, जिस दे दिल विच प्यार नहीं।
सब तो वध गरीबी सुन्नी, जित्थे रुत बहार नहीं॥" राजा के पुत्र नहीं, ये सब कुदरत की लीला न्यारी है। कर्म गति, पता नहीं पल में क्या खेल रचा दे। कभी राजा बना दे, कभी रंक बना दे। कर्म का चक्र न्यारा है। कहा भी है
“कर्म तेरी लीला. रे अपरम्पार।
समझ न आवे माया तेरी, बदले रंग हजार॥" कुदरत ने, कर्म ने, भाग्य ने, प्रभु ने उसकी पुकार सुन ली। राजा के यहाँ बुढ़ापे के अन्दर पुत्ररत्न ने जन्म लिया। आप जानते हैं, जब इंसान की कमी पूरी हो जाती है। तब इंसान की खुशियों का पारावार नहीं रहता। भीतर भी प्रसन्नता का अनुभव होता है और वे खुशिायाँ बाहर में भी प्रकट हो जाती हैं। राजा भी खुशियों में फूला नहीं समा रहा। पुत्र की खुशी में राजा ने धन के खजाने खोल दिये। सबको मुँह माँगा इनाम देता जा रहा है। जो भी द्वार पर आ जाता है उसको देता जा रहा है।
एक दिन उसकी दृष्टि उस आदमी पर गई जो महलों में सफाई का काम करता है। राजा ने उसको बुलाया-“अरे ! तुझे पता नहीं, महारानी ने पुत्र को जन्म दिया है। मेरे मन के अन्दर कितनी खुशी छाई हुई है। इधर आ, मैं तेरे को इनाम दूं।" तब राजा ने उसको सोने का थाल दे दिया। जिसमें हीरे, जवाहरात, पाँच लाल इत्यादि जड़े हुए थे। मैं तुझे इस खुशी के उपलक्ष्य में यह भेंटस्वरूप देता हूँ। उस सोने के थाल को लेकर वह व्यक्ति अपने घर में आ गया। उस व्यक्ति ने सोचा- वाह ! राजा ने मुझे कितना मजबूत टोकरा दिया है। यह कभी टूटेगा भी नहीं।' अब वह उस टोकरे से गन्दगी ढोने लगा।
बहत दिन व्यतीत हो गये। कुछ दिनों के बाद राजा ने उसे बुलाया और कहा-“अरे भाई ! तुझे मैंने पुत्र-जन्म की प्रसन्नता में एक सोने का थाल दिया था,