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छठा फल : श्रुतिरागमस्य : आगम-श्रवण
मनुष्य जन्मरूपी वृक्ष के छह फल आचार्य श्री सोमप्रभसूरि ने अपने एक श्लोक में बताये हैं- जिसमें पहला फल जिनेन्द्र पूजा, दूसरा गुरु की सेवा, तीसरा प्राणीमात्र पर अनुकम्पा के भाव, चौथा सुपात्र को दान देना, पाँचवाँ गुणी व्यक्ति के गुणों के प्रति अनुराग रखना और इन पाँचों की चर्चा हम पीछे व्याख्यानों में कर आये। अब हमें छठे फल जोकि 'श्रुतिरागमस्य' यानि 'सद्शास्त्र श्रवण' पर आपके समक्ष कुछ विचार चर्चा करनी है।
श्रुतिरागमस्य का अर्थ
श्रुतिः + आगमस्य = श्रुतिरागमस्य । प्राचीन भारतीय तत्त्व - चिन्तन दो धाराओं में प्रवाहित हुआ है - श्रुति और श्रुत। श्रुति वेदों की वह पुरातन संज्ञा है, जो ब्राह्मण संस्कृति से सम्बन्धित प्राचीन वैदिक विचारधारा और उत्तरकालीन शैव, वैष्णव आदि धर्म-परम्पराओं का मूलाधार है और श्रुत श्रमण संस्कृति की प्रमुख धारा के रूप में मान्य जैन विचार परम्परा का मूल स्रोत है। श्रुति और श्रुत में शब्दतः एवं अर्थतः इतना अधिक साम्य है कि जिस पर से सामान्यतः सहृदय पाठक को भारतीय चिन्तन पद्धति का मूल में कहीं कोई एक ही उद्गम प्रतिभासित होने लगता है। श्रुति और श्रुत दोनों का ही श्रवण से सम्बन्ध है। जो सुनने में आता है. वह श्रुत हैं और वहीं भाववाचक श्रवण श्रुति है। श्रुि व्याख्या हम कर आये हैं, अब आगम की व्याख्या करेंगे।
आगम शब्द का अर्थ
आ + गम् = 'आगम। ‘आ' उपसर्ग, गम् धातु से निष्पन्न हुआ है। 'आ' उपसर्ग का अर्थ है-पूर्णता । 'गम्' धातु का अर्थ है - गति । आगम शब्द की अनेक परिभाषाएँ करते हुए आचार्यों ने कहा है
"आ-समन्ताद् गम्यतेवस्तुतत्त्वमनेनत्यागमः।”
- जिससे वस्तु तत्त्व का यथार्थ, परिपूर्ण ज्ञान हो, वह आगम है।