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* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ *
गए। किन्तु श्रीकृष्ण ने उस कुत्ते को देखा और कहा-“अहो आश्चर्य ! इस मरे हुए कुत्ते के दाँत देखो कैसे चमक रहे हैं। जैसे मोती चमक रहे हैं।' ___ श्रीकृष्ण ने दुर्गन्ध को नहीं देखा, दाँतों की सुन्दरता को देखा, इसी प्रकार सड़ी हुई दुर्गन्ध की ओर उनका ध्यान नहीं गया। जो शरीर में दोष आया था, उसे न देखकर, बल्कि गुण को देखा। देव ने देखा और कुत्ते से असली रूप में आ गया। श्रीकृष्ण वासुदेव के चरणों में पड़ गया और क्षमा याचना माँगने लगा। प्रभु ! आप जीते, मैं हारा। धन्य है आपका जीवन और धन्य है आपकी सच्ची गुणग्राहकता एवं गुणदर्शन-परायणता। देव श्रीकृष्ण की जय-जयकार करता हुआ, जहाँ से आया था, वहाँ चला गया। . इसमें श्रीकृष्ण की गुणग्राहकता का कितना सुन्दर वर्णन है। जो गुणों का प्रेमी होता है, वह सर्वत्र गुण ही देखता है, दोष नहीं। उसकी दृष्टि निर्मल होती है। मेरी भावना में एक कवित्त आता है, जैसे
“गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे।" - हमें गुणग्राही बनना है। दुकान में जाकर सैकड़ों वस्तुओं में से अपनी पसन्द की कोई विशेष वस्तु का ही चयन किया जाता है। इसी प्रकार लाखों दोषों को भी छोड़कर गुण ग्रहण कर लिये जाते हैं। मैं प्रत्येक सद्गृहस्थ को कहता हूँ कि बुराई छोड़कर अच्छाई ग्रहण करो। शास्त्रकार का कहना है
. “सम्मत्त सोम्मदिट्ठी धम्मं विचारं जइठिइ गुणइं।
कुणइ गुणसंपउग्गो दोसो दूरं परिवज्जइ॥" अर्थात् मध्यस्थ और सौम्यदृष्टि वाला पुरुष धर्म का विचार करता है। इससे वह गुणों का संग्रह करता है तथा दोषों को दूर करता है। गुणवान् वही बनता है, जो दोषों का परिमार्जन करता है।
“क्षारं भावमपहाय वारिदैः, गृह्यन्ते सलिलमेव वारिदाः।" -जैसे मेघ समुद्र के खारेपन को छोड़कर केवल जल को ही ग्रहण करते हैं, वैसे ही सद्गृहस्थ भी दुर्गुणरूपी खारे पानी को छोड़कर सद्गुणरूपी स्वादिष्ट जल को ग्रहण करते हैं। ‘उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा है
___ “कंखेगुणे जाव सरीरभेउ।" -सद्गुणी के गुण छिपकर नहीं रहते, प्रगट हो ही जाते हैं।