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________________ * पाँचवाँ फल : गुणानुराग * * १२७ * देखने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु गुणों पर दृष्टि नहीं डालते। इसीलिए भवसिन्धु में भटकते रहते हैं। गणी साधक के पास गुण स्थिर हैं- मानव को गुणों का प्रशंसक बनना चाहिए। मानव की दृष्टि तो यही रहनी चाहिए कि जहाँ से गुण मिलें, उन्हें ग्रहण करना चाहिए। 'नीतिवाक्यामृत' में आचार्य सोमप्रभसूरि ने कहा है..“गुणाः गुणज्ञेषु गुणी भवन्ति ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः।" : -गुण गुणवान व्यक्ति के पास जाकर गुणयुक्त हो जाते हैं; सार्थकता को प्राप्त होते हैं, किन्तु वही गुण गुणहीन के पास दोषरूप हो जाते हैं, जिनका कोई महत्त्व नहीं रहता। एक मूर्ख व्यक्ति घर में रखी हुई मूर्ति पर चटनी पीसने लगता है. या उसके ऊपर कपड़े धोने लगता है किन्तु बुद्धिमान् शिल्पी राह में पड़े हुए पत्थर को उठाकर लाता है, उसमें छैनी-हथौड़े के प्रयोग से एक मूर्ति तैयार करता है। अतः गुणी व्यक्ति गुणग्राही ही होते हैं। किसी संस्कृत के विद्वान् ने ठीक ही कहा है ___“संसारे सुखिनो जीवा, भवन्ति गुणग्राहकाः। ___ उत्तमास्ते हि विज्ञेयाः, कृष्णवद् दन्तपश्यकाः॥"... __एक बार देवराज इन्द्र ने अपनी देवसभा में कहा- "इस समय मृत्युलोक में द्वारिका नगरी के महाराजा त्रिखण्डाधिपति वासुदेवः श्रीकृष्ण सबसे श्रेष्ठ एवं गुणग्राही, गुणानुरागी पुरुष हैं। उनके गुणों को देखकर उनके चरणों में मेरा मस्तक झुकता है।" सभी देवों ने सुनी, बड़े प्रसन्न हुए। लेकिन एक देव को इन्द्र की बात नहीं जची। कहता है-“महाराज ! जब तक उनकी परीक्षा नहीं ले लूँगा, तब तक मुझे पूर्ण विश्वास नहीं होगा।" इन्द्र ने कहा-“देव ! तुम हार जाओगे और वे जीत जायेंगे। बाकी मर्जी आपकी है। जैसा चाहो वैसा कर लो।" वह देव परीक्षा हेतु आ गया मृत्युलोक में। आप जानते हैं, देव का शरीर वैक्रियमयी होता है, जैसा रूप बनाना चाहें बना सकते हैं। देव ने मरे कुत्ते का रूप बनाया और रास्ते में पड़ गया। शरीर में से गन्दगी इतनी भयंकर कि वहाँ निकलना मुश्किल हो गया है। शरीर में से मवाद बह रही है, कीड़े बिलबिला रहे हैं। त्रिखण्डाधिपति श्रीकृष्ण वासुदेव अपनी हाथी की सवारी पर और साथ में अनेक सेवक तथा प्रजाजन के बाईसवें तीर्थंकर भगवान अरिष्टनेमि के दर्शनार्थ जा रहे हैं। रास्ते में मरे कुत्ते को देखा, सभी ने नाक, मुँह ढक लिया और थू-थू करके आगे निकल
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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