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________________ * तीसरा फल : सत्त्वानुकम्पा : जीवदया * * १०५ * (३) व्यवहारदया-जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित जो दयाभाव है, उसको जानकर शुद्धकरण और योगों से करता है, वह व्यवहारदया है। व्यवहारदया भावदया का ही एक भेद है। व्यवहारदया मोक्ष का क्रियात्मक साधन होने के कारण साधक की क्रिया के रूप में वर्णित है। (४) निश्चयदया-पुद्गल (परद्रव्य) की वांछा से रहित अपने आप के (शुद्ध परिणामों के) द्वारा अपने आप में (कषाय से रहित शुद्ध भाव-स्व-संवेदन में) संस्थित आत्मा ही श्रेष्ठ निश्चयदया कही गई है। अर्थात् निश्चयनय से आत्म-गुणों की घात ही हिंसा है। पुद्गल की परद्रव्यों की चाह से, पर के आलम्बन से और परभाव में रमण से आत्म-गुणों की घात होती है, अतः पर-पदार्थ की चाह वाला परावलम्बी पर में रयमाण आत्मा ही हिंसास्वरूप बन जाता है। परद्रव्य की चाह आदि से रहित स्वावलम्बी स्वप्रतिष्ठ आत्मा ही अहिंसास्वरूप बन जाता है। निश्चयदया भी भावदया है और यही उत्कृष्टदया है। ___ (५) स्वदया-दुःखों से भरे भयंकर संसार में मैं कर्म से मर्दित हूँ। इस कारण अब मैं कर्म नहीं करूँ, इस परिणाम को ज्ञानीजन स्वदया कहते हैं। अर्थात् जीव संसार में दुःखी है और कषायों के कारण, दुःख का मूल कारण संसार में कर्म है। अतः संसार दुःखाकीर्ण है। कर्म कर्ता की पूँजी है और जीव ही कर्म के कर्ता हैं। मैं भी संसार में दु:ख पा रहा हूँ तो इसके कारण मेरे कर्म ही हैं। मैं अनादिकाल से कर्मबन्ध करता रहा हूँ, कभी कर्मबन्ध नहीं रुका। कर्म करूँगा तो दुःख रहेगा ही। हा ! मैं कब तक कर्मबन्ध करता रहूँगा। अब मैं कर्मबन्ध नहीं करूँ, मैं अब अपने को पीड़ित नहीं करूँ, कर्मबन्ध के कारणों को छोडूं, यही स्वदया कही गई है। (६) परदया-जो कृपालु जीवों को दुःखों से, प्राणों के नाश और पापों से बचाये, उस (रक्षक के रक्षण-परिणाम) को परदया कहा गया है। हेय, उपादेय और ज्ञेय परदया के तीनों ही अंशों को जानने का कथन किया है। स्वदया की विरोधी परदया हेय है, जैसे-नरक के हेतु रूप महारम्भ पंचेन्द्रिय जीवों का वध आदि करके, अज्ञान से युक्त दया, ऐसी दया के स्वरूप को सूक्ष्म बुद्धि से ज्ञपरिज्ञा से समझकर, प्रत्याख्यान-परिज्ञा से त्याग करना। जो दया स्वदया की अंशतः विरोधी है और पोषक नहीं है, परन्तु गृहस्थ को करना आवश्यक है, जैसे-प्यासे को सचित्त जल पिलाना और भूखे को सचित्त पदार्थ खिलाना। ऐसी दया साधु के लिए ज्ञेय है, वहाँ साधु को मध्यस्थ रहना, निषेध नहीं करना। जो दया न तो
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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