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* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * |
पक्षी भारी होता जाता था और तुला के दोनों पलड़े बराबर नहीं होते थे। राजा को आश्चर्य के साथ परम दुःख हुआ कि धिक्कार है मेरे शरीर को जोकि एक पक्षी की तुलना में भी इतना हल्का है और बराबर रूप से नहीं तोला जा सका है।
यों राजा आश्चर्य मन हो रहा था। इधर कबूतर और बाज दोनों ही राजा के मन की स्थिति का अध्ययन कर रहे थे तथा राजा के मन की चिन्ता को समझ गये थे। राजा की इस दयालुता पर धर्मात्मापन पर अतिप्रसन्न हुए। ___ वास्तव में दोनों जीव मिथ्यात्वी देव थे और राजा की परीक्षा हेतु आये थे बाज एवं कबूतर का रूप बनाकर। दोनों हार गये। राजा मेघरथ की इस दयालुता पर परम आनन्दित होते हुए राजा से विनयपूर्वक बोले-“हे धर्ममूर्ति राजन् ! हमें आप क्षमा करें। हम तो आपकी परीक्षा हेतु उपस्थित हुए थे। हमें आपके धर्म-पालन, दयाभाव और कर्तव्यनिष्ठा से परम प्रसन्नता है। आपको हमने मारणान्तिक कष्ट दिया, इसके लिए हृदय से क्षमा करें। हमने तो केवल सौधर्म देवलोक के इन्द्र के वचनों की सत्यता की जाँच के लिए ही. यह कत्रिम नाटक रचा था।" इतना निवेदन करके पुनः अपनी देव-शक्ति से राजा को पूर्ववत् नीरोग, स्वस्थ और परिपूर्ण शरीर वाला बनाकर अपने स्थान को चले गए। धन्य है मेघरथ जी, मेघरथ राजा की जय हो। यह है दया का पालन करने से जीवन में दृढ़ता। वास्तव में दया-पालन से अपना नाम अमर कर गये। आज भी मेघरथ राजा के गुण-गौरव की गाथा गाई जाती है।
दया के आठ भेद
जैनाचार्यों ने दया के आठ रूप बताये हैं, यथा-द्रव्यदया, भावदया, व्यवहारदया, निश्चयदया, स्वदया, परदया, स्वरूपदया और अनुबन्धदया इस प्रकार आठ प्रकार की दया कही है। क्रमशः आठों का स्वरूप इस प्रकार है
(१) द्रव्यदया-तत्त्वज्ञान से रहित, जीवादि' तत्त्वों को समझ और मोक्षरूप साध्य के साधन के विवेक से शून्य, तत्त्व श्रद्धा से रहित, सही समझ के अनुसार श्रद्धा अथवा जीव रक्षा, अनुकम्पा और व्रत की क्रमशः सम्यक्त्व के हेतु लक्षण
और मोक्षमार्ग के रूप श्रद्धा से रहित, लोकाधीन, लोगों को अच्छा लगाने के लिए की जाने वाली, देखादेखी की जाने वाली, शून्य चित्त की जाने वाली द्रव्यदया है।
(२) भावदया-जीव स्वरूप को जानकर उल्लासयुक्त चित्त से दया के भाव से . जो दया की जाती है, वह भावदया है। दया स्व-पर के लिए उपकारिणी है।