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तीसरा फल : सत्त्वानुकम्पा : जीवदया *
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अनुकम्पा के दो रूप
द्रव्यानुकम्पा और भावानुकम्पा । यथाशक्ति दूसरों का दुःख दूर करना ही द्रव्य अनुकम्पा है। करुणा, दया के भाव रखना ही भाव अनुकम्पा है ।
दया का स्वरूप बतलाते हुए कहा है- दया वह भाषा है, जिसे बहरे सुन सकते हैं और गूँगे समझ सकते हैं । 'जैन - सिद्धान्त दीपिका ६ / २' में कहा है
"पापाचरणादात्मरक्षा दयाः ।"
- पापमय आचरणों से अपनी या दूसरों की आत्मा को बचाना ही दया है"लोके प्राणरक्षापि । "
- लोक - व्यवहार में प्राण-रक्षा को भी दया कहते हैं। दया का क्षेत्र बड़ा ही विस्तृत रूप धारण किये हुए है। दया, (जीवों की ) रक्षा, अहिंसा, अनुकम्पा इस प्रकार बहुत प्रकार की होती है। स्थूल जीवों की रक्षा दया का एक रूप है। व्रत स्वरूपा अहिंसा, दया का दूसरा रूप है और सम्यग्दृष्टि आत्मा के हृदय में किसी की कर्मजनित बाधा को दूर करने के भाव उत्पन्न होने रूप और उनके द्वारा तथारूप प्रवृत्ति के यथाशक्य आचरण रूप अनुकम्पा दया का तीसरा रूप है।
दया से धर्म की उत्पत्ति होती है, अतः वह धर्म की माता है, उससे धर्म पुष्ट और वृद्धिंगत होता है, अतः वह धर्म वृद्धिकरा दया का चौथा रूप है। ‘आचारांगसूत्र' में भगवान महावीर ने कहा
“सव्वे पाणा पिआउआ सुहसाया दुक्खपडिकूला ।”
- सभी प्राणियों को जीवन प्रिय है। सुख सबको अच्छा लगता है और दुःख बुरा ।
पैगम्बर मुहम्मद ने भी दया को ईश्वर में विश्वास और श्रद्धा का केन्द्र - बिन्दु माना है
"Kindness is a mark of faith and whoever
has not kindness has not faith."
- जिसमें दया है, उसमें ईमान है और जिसमें दया नहीं है, उसमें ईमान नहीं है ।
अंग्रेजी में एक कहावत है
"To pity distress is but human to relieve it godlike."