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* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ
जीव
जैनदर्शन में जीव का लक्षण इस प्रकार करते हैं- “जो द्रव्य और भाव प्राणों से जीता है, वह जीव है। जीव उपयोगमय है, कर्त्ता और 'भोक्ता है, अमूर्त है और स्वदेह परिमाण है। वह संसारस्थ है और सिद्ध भी है। जीव स्वभावतः ही ऊर्ध्वगमन करने वाला है । इस लक्षण में संसारी और मुक्त सभी प्रकार के जीवों का स्वरूप कह दिया गया है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियरूप कायिक जीव हैं ।
सत्त्व
विविध पर्यायों का परिवर्तन होते हुए भी आत्म- द्रव्य की सत्ता में कोई अन्तर नहीं आता, अतः वह सत्त्व है। पृथ्वी, अप्, अग्नि और वायुकाय के जीव सत्त्व हैं । प्राण, भूत, जीव और सत्त्व - ये चारों शब्द सामान्यतः जीव के ही वाचक हैं।
अन्य धर्म के अनुसार सत्त्वानुकम्पा में सभी प्राणी आ जाते हैं । सत्त्वानुकम्पा का अर्थ - बिना भेदभाव से दुःखी जीवों के दुःख को दूर करने की इच्छा होना या किसी दीन-दुःखी को देखकर उसका हृदय कंपित होना ही सत्त्वानुकम्पा है।
अनुकम्पा का स्वरूप बतलाते हैं
"अनुकम्पनम् अनुकम्पाः।”
अर्थात् किसी प्राणी को दुःखी देखकर उसके प्रति दया होना, दुःख को दूर करने के लिए प्रवृत्ति करना अनुकम्पा है। कहा भी है
“सत्त्वं सर्वत्र चित्तस्य, दयार्द्रत्वं दयावतः । धर्मस्य परमं मूल - मनुकम्पा प्रवक्ष्यते ॥”
अर्थात् महान् पुरुषों का आदेश है कि धर्म का उत्कृष्ट मूल अनुकम्पा ही है । यह मूल धर्मात्मा पुरुष के अन्तःकरण में होता है। अतएव सुख के अभिलाषी जीवों पर दुःख पड़ा देखकर उनके मन में अनुकम्पा उत्पन्न होती है। प्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण कहते हैं
"जो उ परं कंपंतं दट्ठूण न कंपए कठिण भावो । एसो उ निरणुकंप अणु-पच्छा भाव जोएणं ॥ "
- वृह. भाष्य १३२०