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में भी योग को उचित स्थान प्राप्त हुआ है। वैशेषिक दर्शन' के प्रणेता कणाद ने भी यम-नियम आदि पर काफी जोर दिया है। ब्रह्मसूत्र' के तीसरे अध्याय में आसन, ध्यान आदि योग के अंगों का वर्णन है, अतः इसका नाम ही साधनपाद है। सांख्यदर्शन' में भी योग विषयक अनेक सूत्र हैं।
तन्त्रयोग के अन्तर्गत आदिनाथ ने हठयोग सिद्धान्त की स्थापना की। इसका उद्देश्य यौगिक क्रियाओं द्वारा शरीर के अंग-प्रत्यंग पर प्रभुत्व तथा मन की स्थिरता प्राप्ति है। महानिर्वाण तन्त्र और षट्चक्र निरूपण ग्रन्थों में योग साधना का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है।
यह तो वैदिक परम्परा में योग शब्द तथा उसके विभिन्न अर्थों, सन्दर्भों और योग-साधना-सम्बन्धी - योग शब्द की यात्रा का संक्षिप्त विवरण है।
इसके साथ ही बौद्धदर्शन में योग की क्या स्थिति रही, यह भी समझना आवश्यक है। बौद्ध दर्शन प्राचीन श्रमण संस्कृति की ही एक धारा है। इसलिये यह निवृत्तिप्रधान है। यद्यपि बौद्ध चेतना अथवा आत्मा को क्षणिक मानते हैं, फिर भी उन्होंने ध्यान, समाधि आदि का वर्णन किया है। बौद्ध योग साधना का वर्णन 'विसुद्धिमग्गो', 'समाधिराज', 'अंगुत्तरनिकाय', दीघनिकाय, शाक्योद्देश टीका आदि ग्रन्थों में है। वहाँ आहार ( खान-पान ), शील, प्रज्ञा, ध्यान आदि के रूप में योग साधना का वर्णन हुआ है। बौद्धों द्वारा प्रयुक्त विपश्यना ध्यान की पद्धति आधुनिक युग में अधिक प्रचलित हुई है।
बोधित्व प्राप्त करने से पूर्व तथागत बुद्ध ने भी श्वासोच्छ्वासनिरोध करने का प्रयास किया था; दूसरे शब्दों में प्राणायाम - साधना की थी। उन्होंने स्वयं अपने शिष्य अग्गिवेसन से एक बार कहा - मैं श्वासोच्छ्वास का निरोध करना चाहता था, इसलिये मैं मुख, नाक एवं कान (कर्ण) में से निकलते हुए साँस को रोकने का प्रयत्न करता रहा, उसके निरोध का प्रयत्न करता रहा।
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अभिषेचनोपवास-ब्रह्मचर्य - गुरुकुलवास- वानप्रस्थ-यज्ञदान - प्रोक्षण - दिङ्नक्षत्र-मन्त्रकाल-नियमाश्चादृष्टाय | - वैशेषिक दर्शन 6/2/2, 6/2/8
ब्रह्मसूत्र 4/1/7-11
सांख्यसूत्र 3/30-34
महानिर्वाण तन्त्र अध्याय 3; तथा Tantrik Texts में प्रकाशित षट्चक्रनिरूपण पृष्ठ 60, 61, 82, 90 और 114
अंगुत्तरनिकाय63.
योग की परिभाषा और परम्परा 15