________________
शेष नहीं रहती । इस प्रकार - 1. लब्धियों में अप्रवृत्ति 2. सूक्ष्मकर्मों-ज्ञान, दर्शन और चारित्र के प्रतिबन्धक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहरूप कर्मों का क्षय तथा 3. अपेक्षातन्तु का विच्छेद, ये तीन समतायोग के विशिष्ट फल हैं, जिनके आस्वादन से अमृतत्व की प्राप्ति होती है।
5. वृत्तिसंक्षय - योग - पूर्वोक्त चार योगों के बाद अब पाँचवें वृत्ति-संक्षययोग का वर्णन प्राप्त होता है, जिसका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है:- आत्मा में मन और शरीर के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाली विकल्परूप तथा चेष्टारूप वृत्तियों का अपुनर्भावरूप से जो निरोध - आत्यन्तिक क्षय - समूलनाश होना उसका नाम वृत्तिसंक्षययोग है'। यह आत्मा स्वभाव से ही निस्तरंग महान् समुद्र के समान निश्चल है। जैसे वायु के सम्पर्क से उसमें तरंगें उठने लगती हैं, इसी प्रकार मन और शरीर के संयोगरूप वायु से उसमें - आत्मा में - संकल्प - विकल्प और परिस्पन्दन - चेष्टारूप नाना प्रकार की वृत्तिरूप तरंगें उठने लगती हैं। इनमें विकल्परूप वृत्तियों का उदय मनोद्रव्यसंयोग से होता है और चेष्टारूप वृत्तियाँ शरीरसम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं। इन विकल्प और चेष्टा रूप वृत्तियों का समूलनाश ही वृत्तिसंक्षय है। यह वृत्तिसंक्षय नामक योग कैवल्य- केवलज्ञान की प्राप्ति के समय और निर्वाण प्राप्ति के समय साधक को उपलब्ध होता है।
यद्यपि वृत्तिनिरोध अन्य ध्यानादि योगों में भी होता है, परन्तु सम्पूर्ण वृत्तियों का सर्वथा निरोध तो इसी योग में संभव है। इसमें इतना विवेक है कि-सयोगकेवलि - अवस्था में तेरहवें गुणस्थान में तो विकल्परूप वृत्तियों का समूल नाश होता है और चौदहवें गुणस्थान में - अयोगकेवलि-दशा में अवशेष रही हुई चेष्टारूप वृत्तियाँ भी समूल नष्ट हो जाती हैं। अतः विकल्परूप वृत्तियों के सर्वथा निरोध से प्राप्त होने वाला वृत्तिसंक्षययोग, आत्मा की कैवल्य प्राप्ति का फलरूप सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व और जीवनमुक्त दशा का बोधक है। तथा अवशिष्ट चेष्टारूप वृत्तियों के समूलघात से
1.
(क) 'अन्यसंयोगवृत्तीनां, यो निरोधस्तथा तथा ।
अपुनर्भावरूपेण स तु तत्संक्षयो मतः ' ।।
( योगबिन्दु, 366 ) वृत्ति - ' इह स्वभावत एव निस्तरंगमहोदधिकल्पस्यात्मनो विकल्परूपाः परिस्पन्दनरूपाश्च वृत्तयः सर्वा अन्यसंयोगनिमित्ता एव । तत्र विकल्परूपास्तथाविधमनो- द्रव्य संयोगात्, परिस्पन्दनरूपाश्च शरीरादिति । ततोऽन्यसंयोगे या वृत्तयः तासां यो निरोधः तथा तथा केवलज्ञानलाभकालेऽयोगिकेवलिकाले च। अपुनर्भावरूपेण - पुनर्भवनपरिहारस्वरूपेण । स तु स पुनः तत्संक्षयो वृत्तिसंक्षयो मत इति । ' (पृ.63)
(ख) 'विकल्पस्पन्दरूपाणां वृत्तीनामन्यजन्मनाम् ।
अपुनर्भावतो रोधः, प्रोच्यते वृत्तिसंक्षयः ।
→ 44 ❖
( योगभेद द्वा. 25 उ. यशोविजयजी)