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________________ रहा हो, किन्तु जहाँ तक तथ्यों का प्रश्न है वहाँ कोई अन्तर नहीं है। उपनिषद् साहित्य का पर्यवेक्षण करने पर सहज ही ज्ञात होता है कि ब्रह्म के साथ साक्षात् कराने वाली क्रिया योग है, तो श्रीमद्गीताकार के अनुसार कर्म करने की कुशलता योग है। आचार्य पतञ्जलि के मन्तव्यानुसार चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है। बौद्धदृष्टि से बोधिसत्व की उपलब्धि कराने वाला योग है तो जैन दृष्टि से आत्मा की शुद्धि कराने वाली क्रिया योग है। इस प्रकार आत्मा का उत्तरोत्तर विकास करने वाली साधना पद्धति योग के रूप में विश्रुत रही है। चित्त की वृत्तियाँ मानव को भटकाती हैं और योग चित्तवृत्तियों की उच्छृखलता को नियंत्रित करता है। वह उन वृत्तियों को परिष्कृत और परिमार्जित करता है। जब योग सधता है तब विवेक का तृतीय नेत्र समुद्घाटित हो जाता है जिससे विकार और वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं। उस साधक का जीवन पवित्र बन जाता है। यह स्मरण रखना होगा कि योग वाणी का विलास नहीं है और न कमनीय कल्पना की गगनचुम्बी उड़ान ही है और न ही दर्शन की पेचीदी पहेली है। यह तो जीवन जीने का भाष्य है। योग वर्णनात्मक नहीं, प्रयोगात्मक है। योग साहित्य तो आज विपुल मात्रा में प्रकाशित हो रहा है पर योग साधना करने वाले सच्चे और अच्छे साधकों की कमी हो रही है। योग के नाम पर कुछ गलत साहित्य भी प्रकाश में आया है जो साधकों को गुमराह करता है। योग के नाम पर जिसमें भोग की ज्वालाएँ धधक रही हैं। दु:ख है, हमारे देश में ऐसी जघन्य स्थितियाँ पनप रही हैं। योग की विशुद्ध परम्परा के साथ कितना घृणित खिलवाड़ हो रहा है। अभ्यास के द्वारा कुछ अद्भुत करिश्मे दिखा देना योग नहीं है। पेट पालने के लिए कुछ नट और मदारी भी ऐसा प्रयास करते हैं। योग तो आत्मिक-साम्राज्य को पाने का पावन पथ है। योग के सधते ही अन्तर्विकार अंधकार की तरह नौ-दो-ग्यारह हो जाते हैं। आन्तरिक अंगों के साथ आसन, प्राणायाम प्रभृति बाह्य अंगों की भी उपादेयता है। आज आवश्यकता है योगविद्या को विकसित करने की। अनुभवी के मार्ग-दर्शन के बिना योग में सही प्रगति नहीं हो सकती; बिना गुरु के योग के गुर नहीं मिल सकते। महामहिम आचार्य प्रवर स्वर्गीय श्री आत्माराम जी महाराज वाग्देवता के वरदपुत्र थे। वे जिस किसी भी विषय को स्पर्श करते तो उसके तलछट तक पहुँचते थे जिससे वह विषय मूर्धन्य मनीषियों को ही नहीं, सामान्य जिज्ञासुओं को भी स्पष्ट हो जाता। वे केवल शब्दशिल्पी ही नहीं थे, अपितु कर्मशिल्पी एवं भावशिल्पी भी थे। "जैनागमों में अष्टांगयोग" आचार्य प्रवर की अद्भुत कृति है। उन्होंने जो कुछ भी लिखा है, अनुभूतियों के आलोक में लिखा है। यह ऐसी अमूल्य कृति है जो कभी भी पुरानी और अनुपयोगी नहीं होगी। योग के अनेक अज्ञात / अजाने रहस्य इसमें * 430 * परिशिष्ट *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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