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________________ के साथ चिरकाल से चिपका हुआ है) भस्म हो जाता है तथा उसके प्रकाश से रागादि अन्धकार दूर हो जाता है; चित्त सर्वथा निर्मल हो जाता है और मोक्षमन्दिर का द्वार सामने दिखाई देने लगता है। अधिक क्या कहें ध्यानयोग, यह आत्मा को उसके वास्तविक स्वरूप में प्रतिष्ठित करने का प्रबलतम साधन है। तथा आत्मस्वातन्त्र्य, परिणामों की निश्चलता और जन्मान्तर के आरम्भक कर्मों का विच्छेद, ये तीन ध्यानयोग के सुचारु फल हैं। ध्यान के भेदों और उनके स्वरूपों का वर्णन अन्यत्र किया जावेगा। 4. समतायोग-ध्यान में अत्यन्तोपयोगी चौथा समतायोग है। अविद्याकल्पित इष्टानिष्ट पदार्थों में विवेकपूर्वक तत्त्वनिर्णय-बुद्धि से राग-द्वेष रहित होना अर्थात् पदार्थों में की जाने वाली इष्टत्व-अनिष्टत्व-कल्पना को केवल अविद्याप्रभाव समझकर उनमें उपेक्षा धारण करना, समता कहलाती है। उसमें निविष्ट मन, वचन, काया के व्यापार का नाम समतायोग है। अविद्या अथवा मोह के वशीभूत हुआ यह जीव अमुक वस्तु को इष्ट और अमुक को अनिष्ट मानकर इष्ट वस्तु में राग और अनिष्ट में द्वेष करने लगता है। सौभाग्यवश जब उसमें विवेक-ज्ञान का उद्रय होता है तब वह इष्ट और अनिष्ट के मर्म को समझ पाता है। विवेक-चक्षु के खुलते ही वह देखता है कि कल जिस वस्तु को उसने अनिष्ट-अप्रिय-जानकर तिरस्कृत किया था 'सज्झायसुज्झाणरयस्य ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स। विसुज्झइ जंसि मलं पुरे कडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणा'।। (दशवैकालिक अध्य. 8 गा. 63) छा.-स्वाध्यायसुध्यानरतस्य त्रायिणः, अपापभावस्य तपसि रतस्य। __विशुध्यत्यस्य मलं पुराकृतं, समीरितं रूपमलमिव ज्योतिषा।। 2. 'अविद्याकल्पितेषूच्चैरिष्टानिष्टेषु वस्तुषु।। संज्ञानात्तव्युदासेन समता समतोच्यते।।363।। इसीलिये साधु को शास्त्रों में आदेश दिया गया है कि वह जगत् के समस्त प्राणियों को समभाव से देखे और राग-द्वेष के वशीभूत होकर किसी प्राणी का भी प्रिय अथवा अप्रिय न करे। यथाः(क) 'सव्वं जगं तु समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा'। छा.-सर्वं जगत्तु समतानुप्रेक्षी प्रियमप्रियं कस्यचिन्न कुर्यात्। __ (सुयगडंग-अ. 10/7) (ख) 'पण्णसमत्ते सया जए, समताधम्ममुदाहरे मुणी।' छा.-प्रज्ञासमाप्तः सदा जयेत्, समताधर्ममुदाहरेन्मुनिः। अर्थात् बुद्धिमान् साधु कषायों को जीते और समभावपूर्वक धर्म का उपदेश करे। (सूयगडंग अध्ययन 2, उ. 2, गा. 6) *424
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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