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________________ यथा'-'आत्ममनोमरुत्तत्त्वसमतायोगलक्षणो ह्यध्यात्मयोगः' अर्थात् आत्मा-मन-शरीरस्थ वायु और पृथिव्यादि तत्त्व इनकी समता-समान परिणाम-को अध्यात्मयोग कहते हैं। इस प्रकार का अध्यात्मयोग स्वरोदय ज्ञान में अधिक उपयोगी हो सकता है, प्रकृतयोग में यह कम उपयोगी है। 2. भावनायोग-अध्यात्मयोग के अनन्तर अब भावनायोग का वर्णन प्राप्त होता है जिसका स्वरूप निर्वचन इस प्रकार है:-प्राप्त हुए अध्यात्म-तत्त्व का बुद्धिसंगतविचारपूर्वक निरन्तर बार-बार अभ्यास-चिन्तन करने का नाम भावनायोग है। आगमों में भावनायोग की बड़ी महिमा वर्णन की है। सूत्रकृतांगसूत्र में लिखा है कि भावनायोग से जिसकी आत्मा शुद्ध हो गई है वह साधक, जल में नौका के समान है और जिस प्रकार किनारे लगने पर नौका को विश्राम मिलता है, उसी प्रकार साधक को भी सर्व प्रकार के दुःखों से छुटकारा मिलकर परम शांति का लाभ होता है। जिस प्रकार सतत अभ्यास और निरन्तर चिन्तन से ही समझा हुआ पदार्थ चित्त में स्थिर रह सकता है, उसी प्रकार अध्यात्मतत्त्व को हृदय-मंदिर में स्थिर रखने के लिये उसका दीर्घ काल तक सत्कारपूर्वक सतत चिन्तन करना भी परम आवश्यक है। इस प्रकार के चिन्तन का नाम ही भावना है। इसलिये अध्यात्मयोग का बहुत कुछ तत्त्व भावनायोग पर ही निर्भर है। यहाँ पर बुद्धिसंगत चिन्तनरूप भावना के स्वरूप में चिन्तन के साथ जो दीर्घकाल आदि तीन विशेषण लगाये गये हैं, वे बड़े महत्व के हैं। अनादिकाल से यह आत्मा वैभाविक संस्कारों-कर्मजन्य उपाधियों-से ओतप्रोत हो रही है। इन वैभाविक संस्कारों का विलय आत्मा के स्वाभाविक गुणों के उदय से ही हो सकता है, और आत्मगुणों का उदय अध्यात्मयोग की अपेक्षा रखता है। अतः उसका दीर्घकाल तक निरन्तर और सत्कारपूर्वक चिन्तन करना परम आवश्यक ठहरता है, जिससे कि अध्यात्मयोग के प्रभाव से लय को प्राप्त होने वाले वैभाविक संस्कारों का फिर से प्रादुर्भाव न होने पावे। और इसमें तो कुछ सन्देह ही नहीं कि श्रद्धापूर्वक लगन से किया जाने वाला कार्य ही फलप्रद होता है। यही बात महर्षि पतञ्जलि ने समाधि-प्राप्ति के 1. टीका-आत्मा चिद्रूपः, मनः प्रसिद्ध, मरुतः शरीरस्था वायवः, तत्त्वं पृथिव्यादि, तेषां सममेकहेलया समतालक्षणः स हि स्फुटमध्यात्मयोगः कथ्यते। 2. 'अभ्यासोबुद्धिमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः।' 9 (यो. भे. द्वा.) 3. 'भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया। नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टइ'।। (15-5) छा.-भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिवाहितः। नौरिव तीरसंपन्नः, सर्वदुःखात् त्रुट्यति।।
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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