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को भी ॐकार मय मानते हैं। उनके विचारानुसार ॐ शब्दब्रह्म है। सारी सृष्टि तो ॐमय है ही। ॐ की शक्ति से सम्पूर्ण संसार - सूर्य, चन्द्र, तारा, जल, वायु आदि सभी शक्तियाँ परिचालित हो रही हैं।
ॐ का पर्यायवाची प्रणव है। 'प्रणव' का अभिप्राय प्राण देने वाला होता है। योगशास्त्रों के अनुसार ॐ मनुष्य की प्राणशक्ति को प्रज्वलित करने वाला है। अतः वैज्ञानिक युग में जितना भौतिक ऊर्जा का मूल्य है उससे भी अधिक मूल्य मानव की आन्तरिक विकास की ऊर्जा में ॐ का है। वैदिक परम्परा के अनुसार ॐ शब्द 'अ', 'उ', 'म्' इन तीन अक्षरों के संयोग से निष्पन्न हुआ है। वहा: 'अ' (ब्रह्मा), उ (विष्णु), म् (महेश - शिव ) - ये तीनों शक्तियाँ इससे जुड़ी हुई हैं।
जैनाचार्यों ने ॐ को पंच परमेष्ठी का वाचक माना है
अरिहंता-असरीरा - आयरिय-उवज्झाय-मुणिणो ।
पंचक्खरनिप्पण्णो ओंकारो पंच परमिट्ठी ॥
अ (अरिहंत) +अ (अशरीरी - सिद्ध), + आ (आचार्य), +3 ( उपाध्याय), +म् (मुनि)=अ+अ+आ+उ+म् = ॐ । ॐ शब्द पंच परमेष्ठी के प्रथमाक्षरों की सन्धि करने से निष्पन्न होता है।
ॐ शब्द दूसरे प्रकार से भी निष्पन्न होता है
आययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहोभागं जाणइ, उड्ढ भागं जाणइ तिरियं भागं जाणइ ||
जो महापुरुष इहलोक अथवा परलोक में होने वाले समस्त कषायादि को प्रत्यक्षतः अच्छी तरह जानता है, जिसके ज्ञान में कोई पदार्थ व्यवधान या बाधक नहीं बन सकते; जो सांसारिक विषयों से उत्पन्न समस्त सुखों को विषतुल्य समझकर शमसुख को प्राप्त कर चुका है, वही आयतचक्षु - दीर्घदर्शी-तीनों लोकों को जानने वाला पूर्ण ज्ञानी महापुरुष है।
यहाँ अहोभागं, उड्ढ भागं, तिरिय भागं (मध्य भाग) =अ+उ+म्-इन तीन आद्य अक्षरों को मिलने से भी ॐ शब्द निष्पन्न होता है।
इसी आधार पर जैन आचार्यों ने ॐ की निष्पत्ति इस प्रकार भी की है - अ - ज्ञान, उ-दर्शन, म् चारित्र का प्रतीक है। अतः अ+उ+म्=ॐ ।
*390 अध्यात्म योग साधना :