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है तो दाहिना अथवा दायाँ स्वर; और बाएँ नथुने से निकलते समय के वायु को बायाँ स्वर कहते हैं। ये सूर्य स्वर और चन्द्र स्वर भी कहलाते हैं। इनके अतिरिक्त, जब दोनों ही नथुनों से वायु निःसृत होता है तो उसे सुषुम्ना स्वर कहते हैं।
स्वरों के इन नामों का आधार नाड़ियाँ हैं। गुदा मूल से गरदन के पिछले भाग तक जो लम्बी हड्डी होती है, वह मेरुदण्ड कहलाता है और वह मेरुदण्ड अनेक शिराओं तथा धमनियों के माध्यम से मस्तिष्क से जुड़ा होता है। इस मेरुदण्ड में तीन नाड़ियाँ होती हैं-बायीं ईड़ा, दायीं पिंगला और मध्य की सुषुम्ना। इन्हीं को चन्द्र नाड़ी, सूर्य नाड़ी और सुषुम्ना नाड़ी भी कहते हैं। चन्द्र-नाड़ी में होता हुआ वायु बाएँ नथुने से निकलता है, सूर्य-नाड़ी में घूमता हुआ दायें नथुने से और सुषुम्ना का वायु दोनों नथुनों से निःसृत होता है।
वायु का नथुनों द्वारा अन्दर खींचना, (inhaling) और बाहर निकालना (exhaling) तो सामान्य श्वास-प्रश्वास क्रिया है जो जीवन का लक्षण है; किन्तु यह सामान्य क्रिया विज्ञान-स्वर-विज्ञान तब बनती है, जब साधक इन तीनों प्रकार के स्वरों को नियन्त्रित करता है, अपनी इच्छानुसार चलाता है तथा इस प्रकार अपनी नाड़ियों की शुद्धि करता है।
यह नाड़ी-शुद्धि योग का अंग और प्राणायाम की आवश्यक पूर्व-पीठिका है। बिना नाडी-शुद्धि के प्राणायाम की साधना सही ढंग से नहीं सध पाती, उससे किसी प्रकार की बाह्य लब्धि, चमत्कार उत्पन्न करने की शक्ति तथा मानसिक एवं शारीरिक क्षमता तथा स्वस्थता की प्राप्ति नहीं हो पाती।
प्राचीन युग में योगी और साधक ग्राम-नगरों से बाहर, भयानक वनों में साधना करते थे। सर्दी-गर्मी आदि के प्राकृतिक प्रकोपों का शरीर पर प्रभाव पड़ता ही था, शरीर अस्वस्थ भी हो जाता था, मानसिक एवं शारीरिक स्वस्थता भंग हो जाती थी, उसका उपचार योगी स्वर-विज्ञान से कर लेते थे। ___ शीत के प्रकोपों, अजीर्ण आदि का उपचार योगी दायाँ स्वर चलाकर कर लेता है; और गर्मी के प्रकोप, दाह ज्वर आदि का उपचार वह अपना बायाँ स्वर चलाकर कर लेता है। भोजन करते समय तथा उसके 12 घन्टे बाद तक वह अपना दायाँ स्वर चलाता है, जिससे भोजन शीघ्र पच जाता है, अजीर्ण नहीं हो पाता और परिणामस्वरूप कब्ज से होने वाली बीमारियाँ भी
* प्राण-शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ - 321 *