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अभिव्यक्ति के माध्यमों की अपेक्षा, क्योंकि ये माध्यम विभिन्न प्रकार की क्षमताएँ प्रदर्शित करते हैं, इसलिए शास्त्रों में दश प्राण बताये गये हैं; अन्यथा प्राणधारा तो एक ही प्रकार की है, दश प्रकार की नहीं ।
प्राण-शक्ति प्रवाह का केन्द्र
मनोवैज्ञानिक, शरीर-वैज्ञानिक ( चिकित्साशास्त्र) की दृष्टि से प्राणशक्ति का केन्द्र है-मस्तिष्क। इस दृष्टिबिन्दु के अनुसार मस्तिष्क प्राणशक्ति का उत्पादन स्थल है, वहीं इस शक्ति का निर्माण होता है और वहीं से यह शरीर के अन्य अवयवों में- संपूर्ण शरीर में प्रवाहित होती है।
किन्तु योग-मार्ग का दृष्टिकोण इस बारे में भिन्न है। योग की अपेक्षा से प्राणशक्ति का केन्द्र है। कुण्डलिनी का निचला अन्तिम भाग, जहाँ कुण्डलिनी शक्ति (serpent power ) अधोमुखी होकर अवस्थित - सोई हुई है।
इसके अधोमुखी होने का प्रभाव यह है कि मनुष्य के जीवन की समस्त प्रवृत्तियाँ बाहर की ओर, संसाराभिमुखी हो रही हैं, मनुष्य विषय- कषायों और काम-भोगों में प्रवृत्ति कर रहा है।
योगी साधक प्राणशक्ति के इस अधोमुखी संसाराभिमुखी प्रवाह को मोड़ता है, उसे ऊर्ध्वगामी बनाता है और योगशास्त्रों में वर्णित सातों चक्रों में प्रवाहित करता हुआ योग की सिद्धि करता है। यही प्राणशक्ति का ऊर्ध्वारोहण है, और यही प्राणशक्ति की साधना है।
योगी साधक किस प्रकार इस ऊर्ध्वारोहण को सम्पन्न करता है, इस बात को समझ लेना आवश्यक है।
प्राणशक्ति के ऊर्ध्वासेहण के सोपान हैं- आसन-शुद्धि, नाड़ी -शुद्धि, `प्राणायाम और प्रत्याहार। इन सोपानों को कुशलतापूर्वक पार करने के लिए तथा प्राणशक्ति को अधिकाधिक ऊर्जस्वी, तेजस्वी तथा सक्षम बनाने के लिए प्राणवायु की अनिवार्य आवश्यकता है।
प्राणवायु और प्राण का सम्बन्ध साधक प्राणवायु और प्राण को एक समझने की भूल नहीं करता। वह जानता है कि ये दो भिन्न वस्तुएँ हैं।
कार्य करती है जो अग्नि को (oxygen gas) करती है। जिस
* प्राण-शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ 317
प्राणवायु प्राणशक्ति के लिए वही प्रज्वलित करने और रखने के लिए वायु