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प्राण-शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ
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यह सम्पूर्ण संसार, चलाचल जगत्, अखिल सृष्टि प्राणमय है। प्राणमय है, इसलिए जीवित है।
प्राण एक धारा है शक्ति की; यह शक्ति का प्रवाह है। यह चैतन्य अथवा आत्मशक्ति का वह रूप है जो तैजस् शरीर से आत्म-प्रदेशों के संपृक्त होने पर निर्मित होता है, उत्पन्न होता है और उसी (तैजस् शरीर) में प्रवाहित होता है, औदारिक (स्थूल) शरीर को संचालित करता है। वह तैजस् और औदारिक दोनों प्रकार के समूचे शरीर में प्रवाहित हो रहा है। -शक्ति का संचार ही जीवन का लक्षण है । जीवन और मरण का द्योतक प्राण ही है। जब तक प्राणों का संचालन शरीर में होता रहता है तब तक मनुष्य अथवा पशु जीवित माना जाता है और प्राण के अभाव में उसे मृत घोषित कर दिया जाता है।
प्राण
जब तक विज्ञान की पहुँच स्थूल शरीर तक ही सीमित रही तब तक हृदय गति को ही जीवन का आधार माना जाता रहा, हृदय गति रुकते ही मनुष्य को मृत घोषित कर दिया जाता था; किन्तु अब विज्ञान मस्तिष्कीय कोशिकाओं और तन्तुओं तक पहुँच चुका है, जब कोशिकाएँ निष्क्रिय हो जाती हैं, उनका हलन चलन पूर्ण रूप से बन्द हो जाता है तब व्यक्ति को मृत घोषित किया जाता है। इन सूक्ष्म कोशिकाओं का संचालन प्राण-शक्ति की धारा से होता है। अतः प्राण ही जीवन का लक्षण है।
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जीव प्राणधारी होते हैं, इसीलिए वे प्राणी कहलाते हैं। वे प्राणी अमीबा (amaeba) तथा फफूँदी में पाये जाने वाले प्राणियों के समान इतने सूक्ष्म भी होते हैं कि एक आलपिन की नोंक पर सैकड़ों-हजारों प्राणधारी जीव अवस्थित रह सकते हैं और ह्वले मछली के समान दीर्घकाय भी।
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