________________
असम्प्रज्ञात समाधि के भी दो भेद बताये गये हैं- भवप्रत्यय और उपायप्रत्यय। उपायप्रत्यय समाधि ही वास्तविक समाधि है। इसकी उत्पत्ति श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा से होती है।
वस्तुतः योगसूत्रकार महर्षि पतंजलि को वृत्तिनिरोध से क्लेशादिकों को नष्ट करने वाला योग ही इष्ट है । यद्यपि यत्किंचित् वृत्तिनिरोध तो क्षिप्तादि भूमिकाओं में भी होता है, किन्तु उसको योगरूप नहीं माना गया, अपितु क्लेशकर्म वासना का समूलनाशक जो वृत्तिनिरोध है, उसी को योग माना गया
है । '
इस प्रकार पातंजल योगदर्शन में योग को समाधिरूप मानकर व्याख्या की गई है। दूसरे शब्दों में, समाधि चित्तगत क्लेशादि - रूप वृत्तियों के निरोध से सम्पन्न होती है।
जैनदर्शन के अनुसार आत्मा स्वभाव से ही निस्तरंग महासमुद्र के समान निश्चल है। जैसे वायु के सम्पर्क से उसमें तरंगें उठने लगती हैं, उसी प्रकार मन और शरीर के संयोग से उसमें (आत्मा में) संकल्प - विकल्प और परिस्पन्दन-चेष्टारूप नाना प्रकार की वृत्तिरूप तरंगें उठने लगती हैं। इनमें विकल्परूप वृत्तियों का उदय मनोद्रव्य-संयोग से होता है और चेष्टारूप वृत्तियाँ शरीर सम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं। इन विकल्प और चेष्टारूप वृत्तियों का समूल नाश ही वृत्तिसंक्षय है | 2
1.
2.
क्षिणोति च क्लेशान् कर्मबन्धनानि श्लथयति – निरोधाभिमुखं करोति स सम्प्रज्ञातो योगः इत्याख्यायते। स च वितर्कानुगतो, विचारानुगतः आनन्दानुगतोऽस्मितानुगत इत्युपरिष्टात्प्रवेदिष्यामः। सर्व-वृत्तिनिरोध इत्यसंप्रज्ञातः समाधिः ।
—पातंजल योगसूत्र 1/1
(ख) श्रद्धावीर्य्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ।
- पातंजल योगसूत्र 1/20
तथा च यद्यपि योगः समाधिः स एव च चित्तवृत्तिनिरोधः स च सार्वभौमः सर्वासु क्षिप्तादिभूमिषु भवः, एवं च क्षिप्तादिष्वतिप्रसंग: तथापि हि यत्किंचित्-वृत्तिनिरोधसत्वात्, तथापि यो निरोधः क्लेशान् क्षिणोति स इव योगः, स च सम्प्रज्ञातासम्प्रज्ञातभेदेन द्विविधः इति नातिप्रसंग : इत्यर्थः ।
- पातंजल योगसूत्र 1/1 के टिप्पण में स्वामि बालकराम
(क) अन्यसंयोगवृत्तीनां, यो निरोधस्तथा तथा । अपुनर्भावरूपेण स तु तत्संक्षयो मतः ।।
* 306 अध्यात्म योग साधना
— योगबिन्दु, 366
→