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________________ 13 शुक्लध्यान एवं समाधियोग शुक्लध्यान : मुक्ति की साक्षात् साधना शुक्लध्यान, ध्यानयोग की सर्वोत्कृष्ट दशा है। इसमें चित्तवृत्ति की एकाग्रता तथा निरोध पूर्ण रूप से सम्पन्न होता है। वीतरागता की साधना इसी दशा में पूर्णत्व को प्राप्त होती है। साधक जिस लक्ष्य को लेकर योगमार्ग पर प्रवृत्ति करता है, इस ध्यान की दशा में उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। ध्यानशतक की टीका में हरिभद्रसूरि ने शुक्लध्यान का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ–‘शोकनिवर्तक और एकाग्रचित्त निरोध' किया है; अर्थात् जिससे आत्मगत शोक की सर्वथा निवृत्ति हो जाय ऐसा एकाग्रचित्तनिरोध शुक्ल - ध्यान है।' शुक्लध्यानी साधक के मन की सभी विषय-वासनाएँ और कषाय नष्ट हो जाते हैं, परिणामस्वरूप उसकी चित्तवृत्ति निर्मल हो जाती है। इसीलिए शुक्लध्यान का वर्ण शंख के समान श्वेत माना गया है। निर्मल चित्तवृत्ति होने से उसके ध्यान में स्थिरता आती है, मन विभावों और बाह्य भावों में नहीं दौड़ता तथा शुद्ध आत्मस्वरूप और आत्मिक गुणों पर एकाग्र हो जाता है। चित्त को निर्मलता और ध्यान की एकाग्रता से साधक की कर्म - निर्जरा तीव्र गति से होती है। वह गुणस्थानों का आरोहण करता हुआ, अनेक जन्मों के संचित और संश्लिष्ट कर्मों को मुहूर्त मात्र (48 मिनट) में ही क्षय करने में समर्थ हो जाता है। शुक्लध्यान का अधिकारी ऐसी महान् सामर्थ्य और क्षमता प्रत्येक तथा साधारण साधक प्राप्त नहीं 1. शुक्लमयतीति शुक्लं - शोकं ग्लपयतीत्यर्थः । * 296 अध्यात्म योग साधना - ध्यानशतक, श्लोक 1 की टीका
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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