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प्रवृत्तियों में लीन थे, उनकी वृत्ति को विपरीत करके मोड़कर अन्तर्मुख बनाना, आत्माभिमुख करना, आत्मा में लगाना । योंगदर्शन में जो आशय 'प्रत्याहार' से व्यक्त किया गया है, वही अभिप्राय प्रतिसंलीनता से प्रकट होता है।
अतः प्रतिसंलीनता तप का वाच्यार्थ हुआ - आत्म-रमणता, आत्माभिमुख होना, अन्तर्मुखी बनना, आत्मा में पूर्ण रूप से लीन होना ।
तपोयोगी साधक इस तप की साधना द्वारा अपनी वृत्ति प्रवृत्तियों को अन्तर्मुखी बनाकर आत्माभिमुख होता है।
भगवती' और औपपातिक सूत्र में इसे प्रतिसंलीनता कहा है तथा उत्तराध्ययन± और तत्वार्थसूत्र' में इसे विविक्तशय्यासन कहा गया है। अनेक ग्रन्थों में इसका नाम संलीनता, प्रतिसंलीनता और विविक्त शय्या - विविक्त शय्यासन मिलता है। किन्तु ये सभी नाम एकार्थवाची हैं, एक ही भाव को प्रकट करते हैं।
भगवती' में प्रतिसंलीनता तप के चार भेद बताये हैं
(1) इन्द्रिय- प्रतिसंलीनता',
(2) कषाय- प्रतिसंलीनता,
(3) योग - प्रतिसंलीनता,
(4) विविक्त - शयनासन सेवना ।
इन्द्रिय प्रतिसंलीनता तप की साधना
इन्द्रियाँ 5 हैं और उनके विषय 23 हैं। श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है। चक्षु - इन्द्रिय का विषय है रूप - यह रूपवान दृश्य और पदार्थों को देखती है। घ्राण इन्द्रिय सुगन्ध - दुर्गन्ध को ग्रहण करती है। रसना इन्द्रिय रसों का आस्वादन करती है। स्पर्श इन्द्रिय शीत-उष्ण, मृदु-कठोर आदि विभिन्न प्रकार के स्पर्शों का ज्ञान करती है।
1.
भगवती 25/802
2.
उत्तराध्ययन 30/28
3.
तत्त्वार्थ सूत्र 9/19
4. (क) भगवती 25/7
(ख) औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र 30 5. औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र 30
*248 अध्यात्म योग साधना :