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________________ बाहर निकालना रेचक; बाहर के वायु को बलपूर्वक नासारन्ध्र से भीतर खींचना पूरक; और आकृष्ट वायु को बलपूर्वक शरीर के अन्दर किसी भी विशिष्ट स्थान पर रोकना कुम्भक है । ' जैन विचारणा में प्रत्येक क्रिया पर द्रव्य और भाव दोनों दृष्टियों से विचार किया गया है और द्रव्य की अपेक्षा भाव को अधिक महत्त्व दिया है; तथा अध्यात्ममूलक तपोयोग में भाव का स्थान भी विशेष है। भाव या अध्यात्मपरक दृष्टि से बाह्य भाव का त्याग - रेचक, अन्तर्भाव की पूर्णता - पूरक ; और समभाव में स्थिरता - कुम्भक है। इस प्रकार आसन और प्राणायाम के अभ्यास से तपोयोगी साधक अपने शरीर (स्थूल और सूक्ष्म) को साध लेता है। इस तप की साधना से साधक को विभिन्न प्रकार के लाभ होते हैं। उनमें से कुछ प्रमुख लाभ हैं (1) शारीरिक ताजगी और मानसिक शान्ति प्राप्त होती है । (2) कष्टसहिष्णुता और सहनशक्ति बढ़ती है। (3), मांसपेशियों में लचीलापन आता है। 1. (4) रक्त संचालन यथोचित सीमा में रहता है; न कम, न ज्यादा। (5) हड्डियों में लचीलापन रहता है। ( 6 ) थकान की अनुभूति कम होती है। (7) ( 8 ) शरीर की गन्दगी साफ हो जाती है। (9) श्वास क्रिया पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है। आदि-आदि ... संक्षेप में तपोयोगी कायक्लेश तप की साधना से काययोग पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेता है। शारीरिक और मानसिक क्षमता में वृद्धि होती है। (6) प्रतिसंलीनता तप: अन्तर्मुखी बनने की साधना संलीनता का अर्थ है - पूर्ण रूप से लीन होना और प्रति - किसी का वाच्य शब्द है। किसके प्रति संलीनता ? आत्मा के प्रति संलीनता । प्रति-संलीनता शब्द का निर्वचन इस प्रकार भी किया जा सकता है-प्रति- विपरीत, संलीनता - भली प्रकार · लीन होना अर्थात् अब तक जो इन्द्रिय, योग बाह्य यहाँ कायक्लेश तप में ही अष्टांग योग के चौथे अंग प्राणायाम का समावेश हो जाता है। * बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना 247
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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