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सर्दी-गर्मी-बरसात के मौसम से। कभी दूसरे के संतापी पदगलों से परिवर्तन होता है तो कभी मनुष्य की अपनी ही भावनाओं, आवेगों-संवेगों से परिवर्तन होता है। इस प्रकार अनेकों प्रकार के परिवर्तन इस शरीर में होते रहते हैं। काल (समय) कृत परिवर्तन तो होते ही रहते हैं। चौथा सूत्र है-'इमं सरीरं जरामरणधम्मयं'-वृद्धावस्था और मृत्यु इस शरीर का स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम है। समय पाकर इसमें वृद्धावस्था भी आयेगी और इसकी मृत्यु भी होगी, आत्मा इसे छोड़कर अन्यत्र-अन्य किसी गति-योनि में जायेगा भी।
इस प्रकार साधक अनित्य भावना की साधना इन चार सूत्रों के आधार पर करता है। प्रेक्षाध्यान में जब वह अपने औदारिक शरीर की प्रेक्षा करता है तो वहाँ उसे शरीर में अवस्थित लाखों-करोड़ों कोशिकाएँ प्रतिपल जीवनशून्य होती हुई, मरती हुई दिखाई देती हैं। और फिर वह अनित्य अनुप्रेक्षा के चिन्तवन से इस तथ्य को कि शरीर अनित्य है अपने मन-मस्तिष्क में दृढीभूत कर लेता है। . इस भावना के चिन्तवन से उसका अपने शरीर के प्रति ममत्व भाव विनष्ट हो जाता है।
(2) अशरण अनुप्रेक्षा-पर-पदार्थों से विरक्ति की साधना अशरणता-मेरा कोई रक्षक नहीं, कोई शरण नहीं, कोई मेरा नाथ नहीं-इस अनुप्रेक्षा के साथ मन-मस्तिष्क को जोड़ना, योग करना, अशरण अनुप्रेक्षायोग साधना है। भगवान ने साधक को अशरण अनुप्रेक्षा का सूत्र दिया
णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिंणालं ताणाए वा, सरणाए वा॥
-आचारांग 2/194 ____ अर्थात्-हे साधक! वे स्वजन तुम्हे त्राण देने में शरण देने में समर्थ नहीं हैं; और तुम भी उन्हें त्राण देने में, शरण देने में समर्थ नहीं हो। __सामान्य मनुष्य भी प्रतिदिन अपने सामने गुजरते हुए संसार और संसारी जनों की प्रवृत्तियों को देखता है कि एक-दूसरे के दु:ख, पीडा, कष्ट को कोई बांट नहीं सकता, मृत्यु के मुँह में जाने वाले को कोई बचा नहीं सकता, कोई भी एक-दूसरे को शरण नहीं दे सकता; धन-वैभव, सम्पत्ति, स्वजन-परिजन, मित्र, बन्धु-बान्धव, विविध प्रकार के वैज्ञानिक उपकरण, औषधियाँ आदि कोई
* भावनायोग साधना *15*