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स्थल शरीर की प्रेक्षा का अभ्यस्त होने पर साधक सूक्ष्म या तैजस शरीर की प्रेक्षा करता है, उसे देखने लग जाता है, वहाँ उसे प्रकम्पन और भी तीव्र गति से होते दिखाई देते हैं, तैजस् शरीर का प्रकाश भी उसके दृष्टि-पटल पर नाचने लगता है, उसे ज्योति के दर्शन होते हैं। मर्मस्थानों और चक्रस्थानों पर उसे ऐसा लगता है जैसे तीव्र प्रकाश हो। वास्तव में है भी तैजस शरीर प्रकाश पुञ्ज ही। उसी में मानवीय विद्युत धारा का प्रवाह प्रवाहित होता है, उसी की स्फूर्ति से स्थूल शरीर संचालित होता है।
शरीर-प्रेक्षा का परिणाम अप्रमाद और सतत जागरूकता होता है।
वह प्रतिपल होने वाले प्रकम्पनों को देखता है। वह क्षणों को देखने लगता है। तटस्थ द्रष्टा होने के कारण वह सुखात्मक क्षण में राग नहीं करता है और दुखात्मक क्षण में द्वेष नहीं करता। वह उन्हें केवल देखता और जानता है। वह सुख-दुःखातीत हो जाता है।
वस्तुतः शरीर-प्रेक्षा की सम्पूर्ण साधना अप्रमत्तता और जागरूकता की साधना है। आचारांग में एक सूत्र आया है-सत्तेस जागरमाणे-सोते हुए भी जागृत रहने वाला तथा दूसरा सूत्र है साधक के लिए-सुत्तेसु यावि पडिबुद्धजीवी-साधक सोता हुआ भी प्रतिबुद्ध होकर जीए।
ये दोनों सूत्र प्रेक्षाध्यान की अपेक्षा से हैं, क्योंकि शरीर-प्रेक्षा का अभ्यस्त साधक ही सोते हुए भी प्रतिबद्ध रहता है, निद्रित अवस्था में भी अप्रमत्त रहता है। इसी अपेक्षा से भगवान महावीर के विषय में कहा गया है
णिइंमि णो पगामाए, सेवइ भगवं उट्ठाए।
जग्गावती य अप्पाणं, ईसिं सायी यासी अपडिन्ने॥ अर्थात्-भगवान विशेष नींद नहीं लेते थे। वे बहुत बार खड़े-खड़े ध्यान करते थे तब भी अपने आप को जागृत रखते थे। वे समूचे साधना काल में बहुत कम सोये। साढ़े बारह वर्ष के साधना काल में मुहूर्त भर भी नहीं सोये।
वास्तविकता यह है कि शरीर-प्रेक्षा करने वाला साधक जागरूक हो जाता है, वह सतत अप्रमत्त रहता है।
(2) श्वास-प्रेक्षा श्वास को सामान्यतया जीवन का पर्यायवाची माना जाता है। जब तक श्वास चलता है तब तक मनुष्य को जीवित माना जाता है, दूसरे शब्दों में
* प्रेक्षाध्यान-योग साधना * 205 *