SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आयतचक्खू लोग-विपस्सी लोगस्स अहोभागं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ। -आचारांग 2/2/302 -अर्थात्-दीर्घदर्शी मनुष्य लोकदर्शी होता है। वह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊर्ध्व भाग को जानता है, तिरछे भाग को जानता है। यह सूत्र काम अनासक्ति के सन्दर्भ में है। इस सूत्र का अभिप्राय है कि लोकदर्शन, कामवासना से मुक्त होने का पहला आलम्बन है। यहाँ लोक का अभिप्रेत अर्थ भोग्य वस्तु अथवा विषय है। शरीर भोग्य वस्तु या विषय है। उसके तीन भाग हैं (1) अधोभाग-नाभि के नीचे का भाग।, (2) ऊर्ध्वभाग-नाभि से ऊपर का भाग। (3) तिर्यग् भाग-नाभि स्थान। दूसरी अपेक्षा से शरीर के तीन भाग ये माने जाते हैं (1) अधोभाग-आँख का गड्ढा, मुख के बीच का भाग, गले का गड्ढा । (2) ऊर्ध्व भाग अथवा उभरे हुए भाग-घुटना, वक्षस्थल, लेलाट आदि। (3) तिर्यग् अथवा तिरछा भाग-शरीर का समतल भाग। साधक प्रेक्षा करे कि इन तीनों भागों में स्रोत हैं। साधक शरीर की प्रेक्षा दो रूपों में करता है(1) संपूर्ण शरीर की प्रेक्षा .. (2) शरीर के मर्मस्थानों, केन्द्रस्थानों और चक्रस्थानों की प्रेक्षा। जिस समय साधक शरीर (स्थल या औदारिक शरीर) की प्रेक्षा करता है और स्थूल शरीर के प्रकंपनों को तटस्थ दृष्टि से देखता है तो अकेले मस्तिष्क में ही उसे लाखों-करोड़ों कोशिकाएँ तथा ज्ञानवाही तन्तु दिखाई देते हैं। प्रतिपल-प्रतिक्षण हजारों-लाखों कोशिकाएँ मरती हैं और जीवित होती हैं। जन्म-मरण रूप लोक उसे वहाँ दिखाई देता है। इसी प्रकार की स्थिति उसे सम्पूर्ण शरीर में दिखाई देती है। *204 - अध्यात्म योग साधना
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy