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विभिन्न प्रकार के आवेग-संवेग और संकल्प-विकल्प उठते हैं, भोगोपभोगों की सामग्री प्राप्त करने को व्यक्ति बेचैन हो उठता है और न मिलने पर आकुल-व्याकुल हो जाता है।
श्रमण काम-भोगों से पूर्णतः विरत होकर सभी प्रकार की मानसिक आकुलताओं से रहित हो जाता है, उसका मन-मानस शान्त हो जाता है।
मन को आवेग-संवेगों से क्षुब्ध न होने देना तितिक्षायोग की साधना है।
धर्म का मूल लक्ष्य एक ही है-आत्मिक शान्ति की प्राप्ति। शान्ति के लिए ही धर्म का आचरण किया जाता है। इसीलिए धर्म मानव के आचार-विचार को शुद्ध और निर्मल बनाने वाला मुख्य तत्त्व है। ___ इस दृष्टि से विचार किया जाये तो ये सभी (दश श्रमण धर्म) धर्म, तितिक्षायोग की साधना हैं। क्योंकि तितिक्षायोग भी तो शान्ति की साधना ही
तितिक्षायोग का साधक साम्यभाव की साधना करता है, वह अनुकूल-परिस्थितियों में भी सम बना रहता है, उनमें राग-द्वेष नहीं करता है।
तितिक्षायोगी उपसर्गों और परीषहों को भी समताभाव से जीतता है। उसका समत्व किसी भी स्थिति-परिस्थिति में खण्डित नहीं होता है।
तितिक्षायोग की तीन निष्पत्तियाँ हैं-सहनशीलता, समताभाव और शान्ति। वह शान्ति में, समताभाव में स्थिर रहता है। इस स्थिरता के कारण तथा परिणामों में संकल्प-विकल्प, राग-द्वेष न होने के कारण वह मुक्ति के समीप पहुँचता जाता है।
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*तितिक्षायोग साधना - 199*