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आवश्यकचूर्णि और तत्त्वार्थसूत्र में इन धर्मों से पहले 'उत्तम' विशेषण लगाया गया है। इस विशेषण का अभिप्राय यह है कि क्षमा आदि तभी धर्म हो सकते हैं जब इनका आचरण उत्कृष्ट भावों से किया जाये। दस श्रमण धर्म और तितिक्षायोग
(1) क्षांति अथवा उत्तम क्षमा धर्म का अभिप्राय है क्रोध का निग्रह, क्रोध के निमित्त प्राप्त होने पर भी मन में कलुषता न लाना, शुभ परिणामों द्वारा क्रोध की निवृत्ति करना।
क्रोधविजय का विधेयात्मक रूप क्षान्ति है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शांति रखना, मन में क्रोध कषाय के आवेग को न उठने देना ही क्षमा है। यही तितिक्षायोग की साधना है।
मानव का मस्तिष्क अति संवेदनशील अंग है, थोड़ी भी विपरीत बात से उसमें उथल-पुथल मच जाती है, विक्षोभ पैदा हो जाता है। श्रमण तितिक्षा की साधना से मन को इतना अपने वश में कर लेता है कि प्रतिकूल स्थिति में भी वह भड़कता नहीं, उद्वेलित नहीं होता, शान्त बना रहता है।
(2) मुक्ति का अभिप्राय है-लोभ का, लालच का निग्रह करना।
सूत्रकृतांग सूत्र में एक शब्द आया है 'सव्वप्पगं" जिसका अर्थ है लोभ; और इसे सर्वव्यापक बताया है। आधुनिक युग के मनोवैज्ञानिक मैकगल ने भी लोभ का मूल संवेग स्वाग्रह भाव माना है। श्रमण स्वाग्रह भाव के संवेग का विनाश करता है। स्वाग्रह भाव के संवेग से अपनी आत्मिक शान्ति में विक्षेप नहीं होने देता।
(3) आर्जव-आर्जव का अभिप्राय है-मन-वचन-काय की ऋजुता, सरलता। आर्जव धर्म के परिपालन से साधक माया-कपट तथा योगों की विसंवादिता (दोगलापन) का परिमार्जन करता है, उसका अन्तर् और बाह्य एक समान होता है। वह जो मन में विचार करता है, वही कहता है और वैसा ही करता भी है।
योगों की विसंवादिता के परिमार्जन से उसकी आत्मिक शान्ति स्थिर रहती है और आत्मिक शान्ति के कारण योग-विसंवादिता का परिमार्जन होता है। परस्पर इनमें कार्य-कारण भाव है।
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सूत्रकृतांग 1/39
* 1964 अध्यात्म योग साधना *