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________________ परीषह (5) दंश-मशक परीषह (6), अचेल परीषह (7) अरति परीषह (8) स्त्री परीषह (9) चर्या परीषह (10) निषद्या परीषह (11) शय्या परीषह (12) आक्रोश परीषह (13) वध परीषह (14) याचना परीषह (15) अलाभ परीषह (16) रोग परीषह (17) तृण-स्पर्श परीषह (18) जल्ल परीषह (19) सत्कार-पुरस्कार परीषह (20) प्रज्ञा परीषह (21) अज्ञान परीषह और (22) दर्शन परीषह। यों तो प्राणीमात्र का जीवन संघर्षों की कहानी है, सुख-दुःख का चित्रपट है किन्तु मानव-जीवन तो संघर्षों में ही पलता है, उसमें भी साधक, और विशेष रूप से गृहत्यागी साधक-श्रमण का जीवन बहुत ही विघ्न-बाधाओं से भरा होता है। पग-पग पर उसके समक्ष कठिनाइयाँ आती हैं। उन कठिनाइयों को वह हँसते-मुसकराते समभावपूर्वक सहन करता है। इसीलिए तो श्रमणचर्या खांडे की धार पर चलने के समान है। साधक (श्रमण) क्षुधा' शान्ति के लिए न तो वृक्ष से फल आदि तोड़ता और तुड़वाता है तथा न भोजन पकाता है और न अपने लिए पकवाता ही है; जब तक शुद्ध-प्रासुक-एषणीय आहार उसे नहीं मिल जाता तब तक वह क्षुधा परीषह को समभाव से सहता है। इसी प्रकार वह कंठ में प्राण आने पर भी सचित्त जल ग्रहण नहीं करता। समभाव से प्यास को सहता है। सनसनाती शीत में भी वह शरीर को गर्म करने की इच्छा नहीं करता और न ही भीष्म ग्रीष्म में स्नान, व्यजन (पंखे से हवा करना) आदि शीतलतादायक उपायों की ही इच्छा करता है। वह समभावपूर्वक शीत और गर्मी की पीड़ा को सहन करता है। साधक अटवी में, वृक्ष मूल में अथवा कन्दरा में ध्यानस्थ होता है तो वहाँ उसे दंश-मशक पीड़ा पहुँचाते हैं, वज्रमुखी चींटियाँ उसके शरीर को छलनी कर देती हैं। फिर भी वह उनके प्रति तनिक भी द्वेष भाव नहीं लाता। यहाँ तक कि वह उन्हें उड़ाता भी नहीं। उनके द्वारा दी गई पीड़ा को वह समभाव से सहता है। यदि साधक के वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो जायें तो भी वह नये वस्त्रों की 1. क्षुधा पर विजय प्राप्त करने के लिए साधक अनशन, ऊनोदरी आदि विभिन्न प्रकार के तप भी करता है; जिनका वर्णन 'तपोयोग' में किया जायेगा। -सम्पादक * 190 * अध्यात्म योग साधना *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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