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________________ है-मोह। मोह वहाँ राग और द्वेष-दो रूपों में अपने को प्रगट करता है। साधक को अपनी पुरानी मान्यताओं और धारणाओं तथा कदाग्रह का राग सताता है, कभी संप्रदाय का राग सामने आ जाता है तो कभी पुराने संस्कारों का; इसी प्रकार द्वेष भी विभिन्न रूप रखकर सामने आता है; कभी अहंकार की आँधी साधक के चेतना प्रवाह को उड़ा ले जाने का प्रयत्न करती है तो कभी ममकार का अंधड़ चलता है; कभी अज्ञान का अन्धकार घटाटोप हो जाता है तो कभी संशय सामने आकर उसे दोलायमान करने लगता है, कभी उसकी एकान्त मान्यताएँ अन्य पक्षों की मान्यताओं के प्रति आक्रोश रूप में आकर उपस्थित हो जाती हैं। उस समय साधक का दृष्टिकोण व्यापक होना चाहिये, उसे अनेकान्त का ज्ञान होना चाहिये तथा उस पर यकीन भी; तभी वह इन सब राग-द्वेष की सेना पर विजय प्राप्त करके अपनी श्रद्धा को सम्यक् बना सकता है। ____ ग्रंथिभेद की साधना में तीन स्थितियाँ होती हैं, जिन्हें कर्मग्रंथों की भाषा में करण कहते हैं-(1) यथापूर्वकरण (2) अपूर्वकरण और (3) अनिवृत्तिकरण। - प्रथम करण की स्थिति में साधक मिथ्यात्व की ग्रन्थि तक पहुँचता है, किन्तु उसकी भीषणता देखकर वापिस लौट जाता है, उसके आत्म-परिणाम बिना संघर्ष किये ही मिथ्यात्व से पुनः ग्रस्त हो जाते हैं। .. द्वितीय करण की स्थिति में साधक राग-द्वेष-मोह आदि मनोविकारों और ग्रन्थियों से संघर्ष करता है। किन्तु उसके आत्म-परिणाम इतने बलशाली नहीं होते कि वह उन पर विजय प्राप्त कर सके, वह उन आवेगों-संवेगों के प्रवाह में बह जाता है। तीसरे करण की स्थिति में साधक के आत्म-परिणाम आवेगों-संवेगों की तुलना में अधिक शक्तिशाली होते हैं, वह उन्हें पराजित कर देता है तथा ग्रंथि-भेद करके सम्यक्त्व की प्राप्ति कर लेता है। यही प्रक्रिया चारित्रमोह की ग्रंथियों के भेदन की है। उसमें भी ये तीनों करण साधक करता है और अन्तिम करण वाला साधक ही विजयी होकर ग्रन्थिभेद में सफल होता है। इसके लिए ग्रंथों में एक उदाहरण दिया हैतीन व्यक्ति परदेश जाने के लिए अपने गाँव से चले। रास्ते में विकट * ग्रन्थिभेद-योग साधना * 187*
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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