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ग्रन्थिभेद - योग साधना
ग्रन्थि कहते हैं गाँठ को । इसे अंग्रेजी में knot अथवा tie भी कहते हैं। जिस प्रकार कपड़े में गाँठ लगाई जाती है, रेशम की डोरी में गाँठ लगाई जाती है। जैसी वस्त्र व डोरी में गाँठ होती है, वैसी गाँठ मन में भी होती है। अन्तर इतना है कि कपड़े और रेशम की गाँठ स्थूल होती है; तथा मन की गाँठ सूक्ष्म होती है।
जिस प्रकार सूती कपड़े से रेशम महीन होता है और महीन होने के कारण ही उसकी गाँठ बहुत मजबूत होती है, सरलता से नहीं खुलती, बहुत प्रयास करना पड़ता है; उसी प्रकार मन तो और भी सूक्ष्म है, उसे आँखें देख नहीं सकती; कान सुन नहीं सकते, न वह सूँघा जा सकता है, न चखा जा सकता है और न ही उसका स्पर्श किया जा सकता है, बहुत ही सूक्ष्म है वह, तो उसकी गाँठ भी अत्यधिक मजबूत होती है, उसे खोलने के लिए साधक को बहुत-बहुत प्रयत्न करना पड़ता है।
मन में अनेक प्रकार की गाँठें होती हैं- अज्ञान की ग्रन्थि, मिथ्यात्व की ग्रन्थि, वस्तु के किसी एक ही पक्ष को पूर्ण सत्य मानने की ( आग्रह ) एकान्त की ग्रन्थि, संशय की ग्रन्थि, क्रोध अथवा वैर की गाँठ, अहंकार और ममकार की ग्रन्थि, झूठ-कपट की, लोभ-लालच की ग्रन्थि; आदि-आदि अनेक प्रकार की ग्रन्थियाँ होती हैं मन में। ये सब मनोग्रन्थियाँ हैं जो बहुत ही सूक्ष्म हैं इसलिए खोलने में अत्यन्त कठिन हैं।
ये सभी प्रकार की ग्रन्थियाँ साधक की आत्मोन्नति में बाधक होती हैं, इन ग्रन्थियों को खोले बिना अथवा नष्ट किये बिना साधक मोक्ष-मार्ग में उन्नति - गति - प्रगति नहीं कर पाता।
इन सभी ग्रन्थियों को आत्मिक गुणों की अपेक्षा दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- प्रथम, श्रद्धा अथवा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में रुकावट * ग्रन्थिभेद - योग साधना * 177