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शरीर से आत्मा को पृथक् मानता हुआ भेदविज्ञान की साधना में आगे बढ़ता है। भेदविज्ञान की साधना दृढ़ हो जाने पर उसमें कष्ट और परीषह सहन करने की क्षमता बढ़ जाती है, क्योंकि उसकी धारणा बन जाती है कि ये कष्ट और पीड़ाएँ शरीर को हो रहे हैं; मुझे यानी मेरी आत्मा को नहीं; और यह शरीर तो विनश्वर है ही। इस प्रकार देह में विदेह अवस्था सिद्ध होती है।
साधक को कायोत्सर्ग की साधना द्वारा आत्मा के शाश्वत स्वभाव और अमरत्व का पूर्ण विश्वास हो जाता है; और यह विश्वास ही देहाध्यास त्याग के रूप में प्रगट होता है।
कायोत्सर्ग में साधक सर्वप्रथम देह का शिथिलीकरण करता है। तनावों से मुक्त होकर सम्पूर्ण स्नायुमण्डल को ढीला करता है। साथ ही वह मुद्रा अथवा आसन का भी अभ्यास करता है। वह या तो खड्गासन से कायोत्सर्ग करता है अथवा सुखासन, पद्मासन और अर्द्ध पद्मासन से करता है। तीनों ही दशाओं में उसका आसन तथा आसनस्थित शरीर निश्चल रहता है।
इसके उपरान्त वह दीर्घश्वास द्वारा लयबद्ध श्वास का अभ्यास करता है। दीर्घश्वास से शरीर और शरीर के अवयव शीघ्र ही शिथिल हो जाते हैं। दीर्घश्वास के साथ धीमे श्वास का अभ्यास साधक करता है। दूसरे शब्दों में, वह श्वास को सूक्ष्म करता है। सूक्ष्म श्वास मन की एकाग्रता में सहायक होता है और उससे साधक तन-मन में शान्ति व शीतलता अनुभव करता है।
तदुपरान्त वह श्वास की गति के साथ 'लोगस्स' या 'नवकार मन्त्र' की साधना प्रारम्भ करता है। एक 'लोगस्स' का ध्यान 25 श्वासोच्छवास में तथा 9 बार नवकार मंत्र का ध्यान 27 श्वासोच्छ्वास में किया जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा वह ध्यानयोग की साधना करता है। ___ कायोत्सर्ग में आसन, प्राणायाम और ध्यान-योग के इन तीन अंगों की साधना एक साथ सिद्ध होती है। ___ आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग से होने वाले अनेक लाभ बताये हैं, उनमें से प्रमुख ये हैं
(1) देहजाड्य शुद्धि-कायोत्सर्ग से शरीर में श्लेष्म आदि दोष दूर होते हैं और ये शारीरिक दोष ही देह की जड़ता के कारण हैं। अतः कायोत्सर्ग की साधना द्वारा देह की जड़ता दूर होती है। शरीर में स्फूर्ति आ जाती है।
* परिमार्जनयोग साधना (षडावश्यक)* 171 *