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________________ कार्य-कारण की शृंखला पर अवस्थित है कि साधक उत्तरोत्तर प्रगति करता हुआ अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता जाता है। प्रत्येक साधना के लिए यह आवश्यक है कि वह भावपूर्वक हो, साधक उसमें तन्मय हो जाये, तभी साधना फलवती होती है, साधक के जीवन में चमक आती है। साथ ही यह भी जरूरी है कि वह विधिपूर्वक की जाये, अविधि से नहीं। यह बात षडावश्यक की साधना के बारे में भी सत्य है। षडावश्यक के सभी अंगों की साधना साधक किस प्रकार करके अपनी आत्मा को उन्नति की ओर अग्रसर कर सकता है, इसका ज्ञान साधक को आवश्यक है। अतः इनकी विधि, लगने वाले सम्भावित दोषों आदि का संक्षिप्त विवेचन यहाँ दिया जा रहा है। समतायोग बनाम सामायिक की साधना . सामायिक की साधना पाप कार्यों से सर्वथा निवृत्ति की साधना है। यह एक विशुद्ध साधना है। इसमें साधक की चित्तवृत्तियाँ तरंग रहित सरोवर के समान पूर्ण शान्त रहती हैं। वह अपने शुद्धात्मस्वरूप में अवस्थित रहता है। चित्तवृत्तियों के शान्त रहने से उसके संवरयोग सधता है और आत्मभाव में स्थित होने से निर्जरायोग। संवर और निर्जरायोग की यदि पूर्ण और उत्कृष्ट साधना हो जाये तो साधक मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है।' शुद्ध सामायिक में लीन साधक करोड़ों जन्मों के कर्मों को नष्ट कर लेता है। . ऐसे उत्तम फलदायक सामायिक की साधना भी शुद्ध रूप में की जानी चाहिये। शुद्ध सामायिक के लिए साधक को सभी प्राणियों पर समभाव रखना 1. सामायिक विशुद्धात्मा सर्वथा घातिकर्मणः। . क्षयात् केवलमाप्नोति लोकालोकप्रकाशकम्।। -हरिभद्र : अष्टक प्रकरण 30/1 2. तिव्वतवं तवमाणे जं नवि निव्वइ जम्मकोडीहिं। तं समभाविआचित्तो, खवेइ कम्म खणद्धेण।। (क) जो समो सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य। तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि-भासिय।। -आवश्यकनियुक्ति, गाथा 799 (ख) अनुयोगद्वार 128 (ग) नियमसार, गाथा 126 5. * 166* अध्यात्म योग साधना *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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