________________
श्रमण के अन्य आवश्यक गुण ये हैं
(6-10) पंचेन्द्रियनिग्रह (इन्द्रिय-प्रत्याहार)-श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन-ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। ये अपने-अपने विषयों की और दौड़ती हैं। इन्हें इनके विषयों से हटाकर आत्मा में लगाना ही इन्द्रियनिग्रह है।
(11-14) चतुर्विध कषाय विवेक (शान्ति योग)-कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ। इन कषायों के आवेग में बहकर ही मनुष्य भाँति-भाँति के पाप और अकरणीय कार्य करता है। श्रमणत्व ग्रहण किया हुआ योगी, इन कषायों के आवेग का दमन नहीं, परिमार्जन करता है, जिससे उसकी चित्तविशुद्धि होती है, आत्मा पर से राग-द्वेष का मल दूर होता है, आत्मज्योति प्रगट होती है।
(15) भावसत्य-अपने अन्तःकरण से आस्रवों (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) को दूर करके, धर्मध्यान-शुक्लध्यान द्वारा शुद्ध आत्मिक भावों का अनुप्रेक्षण करके, आत्मभावों में सत्य की स्फुरणा करना, भाव सत्य कहलाता है। श्रमणयोगी भावसत्य द्वारा अपनी अन्तरात्मा की तथा चित्त की विशुद्धि करता है। .
. (16) करणसत्य-करण का आशय है-जिस अवसर पर जो क्रिया करने योग्य हो, उसे उसी अवसर पर करना। संपूर्ण धार्मिक क्रियाओं को सत्य रूप में और अवसर के अनुकूल करना चाहिये। करणसत्य भाव-सत्य में सहायक है।
करण के सत्तर' प्रकार हैं। इन्हें यथाविधि करना ही करणसत्य है।
करण के सत्तर भेद ये हैं-अशन आदि 4 प्रकार की पिंडविशुद्धि, 5 समिति, 12 भावना, 12 भिक्षु प्रतिमा, 5 इन्द्रिय-निरोध, 25 प्रकार का प्रतिलेखन, 3 गुप्तियाँ, 4 प्रकार का अभिग्रह।
(17) योगसत्य-मन-वचन-काया-इन तीनों योगों को श्रमणयोगी शम, दम, उपशम और आत्म-साधना में लगाता है, यही उसका योगसत्य है। इस प्रकार इन तीनों योगों में सरलता और सत्य ओत-प्रोत हो जाता है, और योगी अपनी आध्यात्मिक साधना में सफलता की ओर बढ़ता है।
1. पिंडविसोही, समिई, भावणा, पडिमाय इंदियनिरोहो।
पडिलेहणं गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु॥ 2. 12 भिक्षु प्रतिमाओं का वर्णन 'प्रतिमा योग' में देखिए।
-ओघनियुक्तिभाष्य
-सम्पादक
* योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील (2) * 137*