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(5) हास्यवश भाषण वर्जन-हँसी-मजाक में भी मुँह से झूठे वचन निकल जाने की सम्भावना रहती है। अतः साधु को हास्य नोकषाय के उदय में भाषण का त्याग करके मौन धारण करना चाहिये। __इन भावनाओं द्वारा श्रमणयोगी विशेष स्थितियों में मौन धारण करके योग के मौन अंग (भाषण वर्जनता) की साधना करता है।
महर्षि पतंजलि ने कहा है-सत्य में दृढ़ स्थिति हो जाने पर साधक की वाणी सत्य क्रिया-अर्थात् शाप, वरदान, आशीर्वाद देने में पूर्ण सक्षम हो जाती
है।
(3) अचौर्य महाव्रत : अनासक्तियोग का प्रारम्भ इसका आगमोक्त नाम 'सव्वाओ अदिन्नादाणाओ विरमणं"-'सर्व अदत्तादान विरमण' है।
'बिना दिये हुये किसी भी अनिवार्य आवश्यकता की वस्तु को न लेना' यह इस महाव्रत का निषेधात्मक रूप है; इसका विधेयात्मक रूप फलित होता है कि श्रमणयोगी को अपने लिए आहार-पानी आदि सभी अनिवार्य आवश्यकता की वस्तुएँ उन वस्तुओं के स्वामी द्वारा सहर्ष दिये जाने पर ही ग्रहण करनी चाहिये। ___ इस महाव्रत की पाँच भावनाएँ ये हैं, जो इसको (अचौर्य महाव्रत को) स्थिरता प्रदान करती हैं। ___ (1) सोच-समझकर वस्तु-स्थान आदि की याचना-साधु को भली-भाँति विचार करके ही वस्तु या स्थान के स्वामी से आवश्यक वस्तुओं की याचना करनी चाहिये। - (2) गुरु-आज्ञा से आहार-श्रमणयोगी विधि-पूर्वक लाये हुए आहार को भी पहले गुरु को दिखाये और फिर उनकी अनुमति प्राप्त होने पर भोजन करे।
इसके अतिरिक्त गुरु, वृद्ध, रोगी, तपस्वी, ज्ञानी और नवदीक्षित मनि की वैयावृत्य न करना, सेवा से जी चुराना भी चोरी है। अतः श्रमणयोगी सेवा का अवसर आने पर पीछे न हटे, जी न चुरावे।
-योगदर्शन 2/36
1. सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्। 2 आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्ययन 15, सूत्र 784
* योग की आधारभूमि ः श्रद्धा और शील (2) * 133 *