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________________ ओर उन्मुख करके । अहिंसा महाव्रत का साधक जीव मात्र के प्रति करुणाशील एवं निर्वैर हो जाता है ।" अहिंसा के स्वरूप को समझने के लिए प्राणों को जानना आवश्यक है; क्योंकि प्राणों को हानि पहुँचाना ही हिंसा है और प्राणरक्षा ही अहिंसा है। प्राण दस प्रकार के हैं (1) श्रोत्रेन्द्रिय प्राण, (2) चक्षुरिन्द्रिय प्राण, (3) घ्राणिन्द्रिय प्राण, (4) रसनेन्द्रिय प्राण (5) स्पर्शेन्द्रिय प्राण, ( 6 ) मनोबल प्राण, (7) वचन-बल प्राण, (8) कायबल प्राण, (9) श्वासोच्छ्वास प्राण, ( 10 ) आयु प्राण। इन प्राणों को धारण करने वाले जीव को प्राणी कहते हैं। प्राणी के किसी भी एक अथवा सभी प्राणों का घात करना हिंसा है। श्रमण आजीवन द्रव्य - क्षेत्र - काल - भाव से संपूर्ण हिंसा का त्याग कर देता है। यही उसका अहिंसा महाव्रत है। अष्टांगयोग में ' अहिंसा' यम का पहला भेद है, इस प्रकार श्रमण अहिंसा महाव्रत का पालन करके योग मार्ग पर आगे बढ़ता है। वस्तुतः अहिंसा योग का आधार है, और इस महाव्रत का पालन करके श्रमणयोगी योग की आधारभूमि को ही मजबूत बनाता है। अहिंसा महाव्रत की स्थिरता के लिए श्रमण-योगी पाँच भावनाओं का अनुपालन करता है। ये भावनाएँ हैं (1) ईर्यासमिति भावना - स्वयं को या अन्य किसी भी प्राणी को तनिक भी कष्ट या पीड़ा न हो, इसलिए जीवों की रक्षा करते हुए देख-भालकर या पूँजी से पूँजकर मार्ग पर चलना । (2) मनोगुप्ति भावना - मन को सदा शुभ और शुद्ध ध्यान में लगाये रखना; गुणी और ज्ञानी जनों के प्रति प्रमोद भाव और अधर्मी- पापी जनों के प्रति दया भाव - कल्याण भाव रखना। ( 3 ) एषणा समिति भावना - वस्त्र, पात्र, आहार, स्थान आदि वस्तुओं की गवेषणा, ग्रहणैषणा, परिभोगैषणा - इन तीन एषणाओं में दोष न लगने देना, निर्दोष वस्तु के उपयोग का ध्यान रखना । -योगदर्शन 2/35 * योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील (2) 131 1. अहिंसाप्रतिष्ठायां तत् सन्निधौ वैरत्यागः ।
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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