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से ही श्रमण छह काया के प्रतिपालक होते हैं और अपनी आत्मा का उद्धार करते हैं।
आगमों में साधु के सत्ताईस गुण' बताये गये हैं,
सत्तर हैं। 2
तथा उनके उत्तरगुण
साधुओं के सत्ताईस (27) गुण ये हैं
(1-5) पाँच महाव्रतों [ ( 1 ) सर्व प्राणातिपातविरमण, (2) सर्व मृषावाद-विरमण, (3) सर्व अदत्तादानविरमण, ( 4 ) सर्व मैथुनविरमण और (5) सर्व परिग्रहविरमण ] का पालन ।
(6-10) पंचेन्द्रियनिग्रह ( श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन) – इन पाँच इन्द्रियों को विषयाभिमुख न होने देना ।
(11-14) चतुर्विध कषाय- विवेक ( क्रोध, मान, माया, लोभ) - इन चार कषायों पर विजय प्राप्त करना ।
(15) भावसत्य, (16) करणसत्य, ( 17 ) योगसत्य, ( 18 ) क्षमा, ( 19 ) विरागता, ( 20 ) मन- समाहरणता, ( 21 ) वाक्- समाहरणता, (22) काय-समाहरणता, (23) ज्ञानसम्पन्नता, ( 24 ) दर्शनसम्पन्नता, ( 25 ) चारित्र - सम्पन्नता, (26) वेदना समाध्यासना, ( 27 ) मारणान्तिक समाध्यासना । कुछ प्रकरण ग्रन्थों में दूसरी अपेक्षा से भी साधु के 27 गुण बताये हैं। वे इस प्रकार हैं
(1-5) पाँच महाव्रत, (6-11) जीवकायसंयम (पृथ्वीकाय, जलकाय, वायुकाय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय का संयम ) ( 12-16) पंचेन्द्रियनिग्रह, ( 17 ) लोभनिग्रह, ( 18 ) क्षमा, (19) भावविशुद्धि, (20) • प्रतिलेखना विशुद्धि, (21-22 ) संयम - योगयुक्ति, (23) कुशलमन - उदीरणा, अकुशलमन-निरोध, (24) कुशल वचन उदीरणा, अकुशल वचन निरोध,
1. (क) सत्तावीस अणगार गुणा पण्णत्ता । (ख) पंच महव्वय जुत्तो पंचेन्दियसंवरणो, चडविह कसाय मुक्को तओ समाधारणीया । तिसच्चसम्पन्न तिओ खंति संवेगरओ, वेयणमच्चुभयगंयं साहु गुण सत्तावीसं । । 2. पिण्डविसोही समिई भावणा पडिमा य इन्दियनिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ।।
- समवायांग, 27वाँ समवाय
- ओघनिर्युक्ति भाष्य, पृ. 6
* योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील ( 2 ) * 129*