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योग की आधारभूमि: श्रद्धा और शील (2) 2 (गृहत्यागी श्रमण का योगाचार)
जब गृहस्थयोगी (श्रावक) अपने व्रतों का समुचित पालन करने का अभ्यस्त हो जाता है तब उसकी वैराग्य भावना और भी दृढ़ हो जाती है, यह संसार और सांसारिक सम्बन्ध उसे भारभूत और बन्धन प्रतीत होने लगते हैं, वह गृहस्थयोगी की भूमिका से ऊपर उठकर संसारत्यागी श्रमण बन जाता है। अहिंसा आदि जिन व्रतों और नियमों का वह आंशिक रूप से पालन करता था, श्रमण बनकर वह उन अहिंसादि व्रतों का पूर्ण रूप से पालन करने लगता है। श्रमण : सम्पूर्ण योग का आराधक
श्रमण (साधु) अध्यात्मप्रधान जैन संस्कृति का मूल आधार और केन्द्र-बिन्दु है। उसी के नाम पर जैन संस्कृति तथा निर्ग्रन्थ धर्म, श्रमण संस्कृति और श्रमण धर्म कहा जाता है। उसका सम्पूर्ण आचार-विचार और व्यवहार योगमय होता है । उसके संयम का दूसरा नाम योग ही है। यह योग श्रमण के जीवन का मूल मन्त्र है । संसारत्यागी और आत्मचिन्तक होने के कारण वह योग के सभी मार्गों का सम्यक् रूप से पालन करने में सक्षम होता है। योगसिद्धि के लिए श्रमण चर्या सहायक और आधारभूत है। उसके बाह्य और आन्तरिक सम्पूर्ण जीवन में योग साकार होता है। श्रमण की सम्पूर्ण चर्या, उसके गुणों, व्रतों आदि सब में योग की झलक स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।
साधु के मूल और उत्तर गुण साधु में कुछ विशिष्ट गुण होने आवश्यक हैं; सिर्फ वेष, लिंग, जाति आदि के आधार पर कोई साधु नहीं कहला सकता है। साधु गुणों के कारण होता है' और उसकी प्रतीति का आधार भी गुण ही हैं।
गुणों को धारण करने
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(क) नाणदंसणसम्पन्नं, संजमे य तवे रयं । एवं गुण समाउत्तं, संजयं साहुमालवे ।। (ख) गुणेहि साहू अगुणेहि असाहू ।
* 128 अध्यात्म योग साधना
- दशवै. अ. 7, गा. 49 - दशवै. अ. 9, उ. 3, गा. 11