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________________ गृहस्थ की योग साधना गृहस्थ साधक के पाँच अणुव्रत मूलगुण कहलाते हैं और सात उत्तर गुण ( 3 गुणव्रत और 4 शिक्षाव्रत ) हैं। मूलगुणों के रूप में वह योग के प्रथम अंग - यम की साधना करता है और उत्तरगुणों के रूप में अष्टांगयोग के द्वितीय अंग नियम की। सामायिक और पौषधोपचास व्रतों में वह आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि योग के अन्य अंगों की भी साधना करता है तथा उन सोपानों पर भी अपने कदम रखता है। सामायिक के अन्तर्गत वह छह आवश्यक-(1) समताभाव, (2) चतुर्विंशतिस्तव, (3) गुरुवन्दन, (4) प्रतिक्रमण, (5) कायोत्सर्ग और (6) प्रत्याख्यान करता है। इनमें कायोत्सर्ग तो ध्यान ही है, क्योंकि इसमें ध्यान की आराधना - साधना की जाती है। और समताभाव - यही तो योग का लक्ष्य है; योग, विशेष रूप से अध्यात्मयोग का लक्ष्य ही समताभाव की पूर्णरूपेण प्राप्ति है। इसी प्रकार पौषध में भी साधक तप-ध्यान-आत्मचिन्तन आदि स्थिर आसन से करता है। वह स्वाध्याय आदि के रूप में तप की साधना करता है। इन सभी (बारह) व्रतों का वास्तविक उद्देश्य तो मन-वचनं काय की वृत्तियों को सीमित करना - निरोध करना है और चित्तवृत्ति का निरोध ही तो योग साधना का एक मात्र लक्ष्य और केन्द्रबिन्दु है। इसीलिए गृहस्थ साधक को भी भारत की सभी परम्पराओं में गृहस्थयोगी कहा गया है। - गृहस्थयोगी साधक जब अपने ग्रहण किये हुए यम-नियमों (बारह व्रत ) की साधना में परिपक्व हो जाता है, उनका निरतिचार निर्दोष पालन करने लगता है और वह देखता है कि उसका बल-वीर्य - उत्थान आदि अभी उचित परिमाण में हैं तब वह विशिष्ट साधना की ओर उन्मुख होता है। गृहस्थयोगी की विशिष्ट साधना : प्रतिमा श्रावक की यह विशिष्ट साधना जैन आगमों तथा शास्त्रों में प्रतिमा के नाम से कही गई है। प्रतिमा का आशय - प्रतिज्ञाविशेष, व्रतविशेष, तपविशेष अथवा अभिग्रहविशेष है। साधक अपना गृहस्थ तथा समाज - सम्बन्धी समस्त दायित्व छोड़कर (पुत्रादि को देकर ) धर्म - स्थानक में जाकर, तथा संसार से यथाशक्ति निर्लेप होकर इन प्रतिमाओं की साधना-आराधना करता है। गृहस्थयोगी की प्रतिमाएँ ग्यारह हैं 126 अध्यात्म योग साधना
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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