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(4) भाव-शुद्धि-सामायिक साधना में भावशुद्धि अति आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। भाव के बिना कोई भी क्रिया फलदायी नहीं होती। सामायिक भी लौकिक इच्छा, कामना से नहीं करनी चाहिये; इसका ध्येय साधक को आत्मशुद्धि रखना चाहिये। इन चार प्रकार की शुद्धियों से सामायिक की साधना में तेजस्विता आती है।
(2) देशावकाशिक व्रत यह दूसरा शिक्षाव्रत है। इसमें छठे दिशा परिमाण व्रत में ग्रहण की हुई मर्यादाओं को और भी संकुचित किया जाता है। उदाहरणस्वरूप, किसी ने पूर्व दिशा में जाने की जीवन भर की सीमा 100 किलोमीटर रखी; किन्तु इतनी दूर वह प्रतिदिन जाता नहीं। अतः इस व्रत में वह इस सीमा को और कम, यथा-2, 4, 5 किलोमीटर तक घटा सकता है। . . इस व्रत के पाँच अतिचार हैं-(1) आनयन प्रयोग-मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तुएँ मँगवाना। (2) प्रेष्य प्रयोग-मर्यादित क्षेत्र से बाहर किसी वस्तु को भेजना। (3) शब्दानुपात-मर्यादित क्षेत्र से बाहर स्वयं तो न जाना किन्तु शब्द-संकेत द्वारा काम निकाल लेना। (4) रूपानुपात-अपना रूप दिखा कर मर्यादा से बाहर क्षेत्र में कोई काम करवाना। (5) पुद्गल प्रक्षेप-मर्यादित क्षेत्र से बाहर कंकर आदि फेंककर अपना अभिप्राय प्रगट करके कार्य करवाना।
(3) पौषधोपवास व्रत पौषध का अर्थ है-अपनी आत्मा को पोषना-खराक देना, यह पोषना धर्माचार्य के समीप धर्मस्थानक में ही सम्भव होता है; और उपवास का अर्थ है-भोजन का त्याग। उपवासपूर्वक धर्मस्थान में रहकर आत्मचिन्तन, धर्मध्यान करना पौषधोपवास है। यह एक अहोरात्रि (24 घण्टे-पहले दिन के सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय तक) का होता है। यह दूज, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा-पर्व-तिथियों के दिन किया जाता है। दो अष्टमी और दो चतुर्दशी (शुक्ल पक्ष की और कृष्ण पक्ष की) तथा एक अमावस्या और एक पूर्णिमा-इस प्रकार एक मास में छह पौषध करने का शास्त्रों में विधान मिलता है।
पौषध में श्रावक चार प्रकार का त्याग करता है-(1) शृंगार-विलेपन, स्नान आदि (2) अब्रह्मचर्य, (3) आहार आदि (4) घर तथा व्यापार सम्बन्धी सभी सांसारिक कार्य।
• योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील (1) * 123 *