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________________ भावशुद्धि-भाव शुद्धि के बिना साधक की कोई भी क्रिया सफल नहीं हो सकती। इसीलिए योग प्राप्ति के लिए भावशुद्धि आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। क्रिया शरीर है और भाव आत्मा। जिस प्रकार आत्मा के अभाव में शरीर निर्जीव और जड़वत् रह जाता है उसी प्रकार भावहीन क्रिया भी शून्य और निष्फल रहती है। अन्तरंग आशय का नाम ही भाव है और इसी अंतरंग आशय की शुद्धि एवं निर्मलता ही भावशुद्धि है। इसी को शुभ और शुद्ध अध्यवसाय भी कहते हैं। इस प्रकार शुद्ध श्रद्धा, त्यागवृत्ति और भावशद्धि-वे सदगुण हैं, जिनके उपार्जन से व्यक्ति योग-मार्ग पर चलने का अधिकारी (पात्र) बन जाता है। शुद्ध श्रद्धा अथवा सम्यग्दर्शन जैन योग का सर्वप्रथम और महत्त्वपूर्ण आधार है, नींव है, जिस पर जैन योग का समूचा महल खड़ा है। सम्पूर्ण आचार, योगाचार इसी मूलभित्ति पर आधारित है। इसलिए इसका पालन अतिचार रहित करना चाहिए। सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार ये हैं-(1) शंका, (2) कांक्षा, (3) विचिकित्सा, (4) मिथ्यात्वियों की प्रशंसा और (5) मिथ्यात्वियों से अधिक सम्पर्क अथवा मिथ्यादृष्टियों का संस्तव।' सम्यज्ञान सम्यग्दर्शन के लिए जिन तत्त्वों पर श्रद्धान/ विश्वास करना अपेक्षित है, उनको विधिवत् सही ढंग से जानना ही सम्यग्ज्ञान है। दूसरे शब्दों में अनेक धर्मयुक्त 'स्व' तथा 'पर' पदार्थों को जानना ही सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान का होना असम्भव है।' आत्मस्वरूप को जानना ही सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान के तीन दोष हैं-(1) संशय, (2) विपर्यय तथा (3) अनध्यवसाय। अतः इन तीनों दोषों को दूर करके 'स्व' और 'पर' पदार्थों को जानना चाहिये। 1. 2. -प्रेमयरत्नमाला 1 योगशास्त्र 2/17 उत्तराध्ययन सूत्र 28/35-नाणेण जाणइ भावे। स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्। सम्यग्ज्ञानं कार्यं सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः। ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात्।। कारणकार्यविधानं समकालं जायनोरपि हि। दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम्॥ -पुरुषार्थसिद्धयुपाय 33, 34 * 108 * अध्यात्म योग साधना *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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