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है। यह संसार की प्राचीनतम विद्या है और इसकी शोध एवं साधना का सम्पूर्ण श्रेय हमारी आर्यभूमि भारत को ही है। भारत में अगणित वर्षों पूर्व योगविद्या का विकास ही नहीं, किन्तु योग की सम्पूर्ण साधना का मार्ग भी प्रशस्त हो चुका था। आज तो उस विद्या का बूँदभर ज्ञान ही हमारे पास रहा है। और हम उसको बहुत कुछ समझ रहे हैं....! अस्तु....
'योग' जैन, बौद्ध या वैदिक नहीं है, न हिन्दू, न मुस्लिम है, न पाश्चात्य-पौर्वात्य है, योग तो योग है, आत्मविद्या है, किन्तु फिर भी 'योग' के साथ सम्प्रदाय या परम्परा का नाम प्रायः जुड़ा हुआ है। जैन योग, बौद्ध योग, वैदिक योग आदि नाम प्रचलित हैं। इसका कारण योग-साधना की प्रचलित मान्यताएँ तथा अनुभूत विधियां हैं। योग का लक्ष्य प्रायः समान होते हुये भी साधनाक्रम एवं विधि में काफी अन्तर रहता है। पातंजल आदि हिन्दू ग्रन्थों में 'योग' साधना में हठयोग, प्राणायाम आदि अन्तर पर जहाँ बहुत बल दिया है, वहाँ जैन ग्रन्थों में-तपोयोग, भावनायोग तथा ध्यान-साधना पर ही योग की नींव खड़ी हुई है। बौद्धग्रन्थों में भी 'ध्यान' साधना पर ही योग का विशेष बल है। श्रमण परम्परा बाह्य-शुद्धि की अपेक्षा अन्तःशुद्धि पर अधिक बल देती है, इसलिये 'योगमार्ग' भी यहाँ अन्तर्मुखी-साधना का ही एक पर्याय बन गया है। योग सम्बन्धी इन धारणाओं और परम्पराओं के कारण ही 'योग' शब्द के साथ 'जैन योग' विशेषण जोड़ा गया है, जिसके पीछे एक विशाल सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि है। मैं आशा करता हूँ, पाठक इस पृष्ठभूमि को समझ लेंगे तो उनके मन में विशेषण के प्रति किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं होगी।
आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व जैन परम्परा के बहुश्रुत विद्वान, गंभीर विचारक श्रद्धेय आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज ने 'योग' पर एक विशिष्ट चिन्तन-परक ग्रन्थ तैयार किया था। उस समय आम लोगों में यह एक भ्रान्त धारणा बनी हुई थी कि 'योगविद्या' हिन्दू या वैदिक धर्म की ही मुख्य शाखा है, जैन धर्म को 'योग' नाम से कुछ लेना-देना नहीं है। इस भ्रान्ति का कारण साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह या अज्ञान ही माना जा सकता है। श्रद्धेय आचार्य श्री ने इस जन-भ्रान्ति को तोड़ने का एक ऐतिहासिक प्रयास किया 'जैनागमों में अष्टांग योग' नामक कृति रचकर।
आचार्य श्री ने इस छोटी-सी पुस्तक में जैन आगम, उनके परवर्ती टीका ग्रन्थ तथा हरिभद्र सूरि के योग सम्बन्धी चार महान ग्रन्थ, आचार्य शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव, आचार्य हेमचन्द्र कृत योगशास्त्र तथा उपाध्याय यशोविजय जी कृत योग दर्शन की व्याख्याएँ आदि के सन्दर्भ देकर पातंजल योग के साथ जैन परम्परा सम्मत योग का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया है। इस गहन श्रमसाध्य और शोधपूर्ण पुस्तक में आचार्य श्री ने बड़ी उदार तथा व्यापक दृष्टि से योग के आठों-अंगों का समन्वय-प्रधान विवेचन- विश्लेषण करके यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि योग सम्बन्धी जो सिद्धान्त पातंजल योगदर्शन में विहित हैं वे सभी सिद्धान्त कुछ शब्दान्तर और कुछ
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