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इस लब्धि के प्रयोग से साधक आहारक समुद्घात करके अपने शरीर के दायें कन्धे से एक हाभ लम्बा पुतला निकालते हैं। वह पुतला तीर्थंकर भगवान के पास जाता है। तीर्थंकर के दर्शन करके लौट आता है और पुनः साधक के शरीर में समा जाता है। इस क्रिया से साधक की शंका का समाधान हो जाता है।
(25) शीतललेश्यालब्धि-यह लब्धि तेजोलब्धि से विपरीत स्वभाव की होती है। तेजोलब्धि ज्वलनशील और भस्मक होती है; जबकि यह शीतलतादायक
इस लब्धि से सम्पन्न साधक किसी आर्तप्राणी अथवा तेजोलेश्या के कारण जलते हुए प्राणियों के प्रति करुणाशील होकर, इस लब्धि का प्रयोग करता है, भस्म होने से उनकी रक्षा करता है।
यह लब्धि भी तैज्स शरीर से ही उत्पन्न होती है। किन्तु इसके परमाणु गोशीर्ष चन्दन अथवा हिम के समान शीतलतादायक और प्राणियों के लिए सुखदायी होते हैं।
(26) वैक्रियलब्धि-इस लब्धि के प्रभाव से साधक अपने अनेक रूप बना सकता है, तथा एक ही समय पर विभिन्न स्थानों पर दिखाई दे सकता है, एवं अन्य लोगों को विभिन्न प्रकार के दृश्य भी दिखा सकता है।
(27) अक्षीणमहानसलब्धि-इस लब्धि के प्रभाव से साधक सैकड़ों-हजारों व्यक्तियों को एक ही पात्र से भोजन कराके उनकी क्षुधा-तृप्ति कर सकता है। फिर भी उस पात्र में भोजन उतना का उतना ही रहता है; वह भोजन तभी समाप्त होता है, जब साधक स्वयं भोजन करके तृप्त हो जाता है।
(28) पुलाकलब्धि-इस लब्धि से सम्पन्न साधक चक्रवर्ती की सेना को भी पराजित करने में सक्षम होता है।
लब्धियाँ अनेक हैं और उनके विभिन्न रूप-स्वरूप तथा शक्ति-सामर्थ्य हैं। ये 28 लब्धियाँ तो लब्धियों का संक्षिप्त दिग्दर्शन मात्र हैं। वर्गीकरण की दृष्टि से इन लब्धियों के तीन वर्ग किये जा सकते हैं-(1) ज्ञानलब्धियाँ, (2) शरीरलब्धियाँ तथा (3) पदलब्धियाँ।
इनमें क्रमश:-7, 8, 9, 12, 20, 21, 22 ये ज्ञानलब्धियाँ हैं।
शरीरलब्धियाँ हैं-1, 2, 3, 4, 5, 6, 10, 11, 19, 23, 24, 25, 26, 27, 281
पदलब्धियाँ हैं-13, 14, 15, 16, 17, 18 ।
* 100 * अध्यात्म योग साधना*