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वहाँ वर्णन है कि समाहित आत्मा से दस प्रकार के इद्धि-विध योग्य चित्त उत्पन्न होता है, उससे अर्हत्मार्ग की सिद्धि होती है। इसे प्रातिहार्य भी कहा गया है और अतिशय एवं उपाय-सम्पदा भी।
ये दश भेद इस प्रकार हैं-(1) अधिष्ठान-अनेक रूप बनाने की क्षमता, (2) विकुर्वण-विविध प्रकार की सेनाओं की निर्माण क्षमता, (3) मनोमया-अन्य के मन में उठने वाले भावों का ज्ञान,(4) ज्ञान विस्फार-अनित्य भावना, (5) समाधि विस्फार-ध्यान से विघ्नों का नाश, (6) आर्य ऋद्धि-प्रतिकूल में अनुकूल संज्ञा, (7) कर्म विपाकजा-आकाशंगामिनी, (8) पुण्यवती ऋद्धि-चक्रवर्ती, वासुदेव आदि की ऋद्धि, (9) विद्यामया ऋद्धि-विद्याधरों का आकाश गमन का रूप दर्शन, (10) इज्झनठेन ऋद्धि-संप्रयोग विधि, शिल्प कार्य आदि में कुशलता।
इनके अतिरिक्त अन्य अभिज्ञाओं का भी उल्लेख प्राप्त होता है। 'दिव्या सोत' से सभी प्रकार के शब्दों, पशु-पक्षियों की बोली आदि का परिज्ञान; 'परचित्त विज्ञानन' से दूसरे के मन का बोध; 'दिव्व चक्खु' से दिव्य दृष्टि की प्राप्ति; अधिक 'संयम' से लाघवता और आकाशगामिनी शक्ति की प्राप्ति; तथा 'पुव्वनिवासानुस्सती' से पूर्व जन्मों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। जैनयोग और लब्धियां
जैन योग में लब्धियों का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है। अंग ग्रंथों से लेकर योगशास्त्र और ज्ञानार्णव तक इन लब्धियों के वर्णन की एक सुदीर्घ परंपरा चली आई है तथा अनेक प्रकार की लब्धियों का वर्णन हुआ है। विभिन्न ग्रन्थों में इनकी संख्या भी भिन्न-भिन्न है। __भगवती सूत्र में अनेक स्थलों पर लब्धियों का वर्णन हुआ है। स्थानांग, औपपातिक, प्रज्ञापना में भी लब्धियों का वर्णन है। इनमें शारीरिक, मानसिक और आत्मिक सभी प्रकार की लब्धियाँ समाविष्ट हैं।
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द्रष्टव्य-विसुद्धिमग्गो का इद्धिविध निद्देसो, पृष्ठ 261 से 265 भगवती 8/2; 5/4/189; 14/7/521-522; 5/4/196; 2/10/120; 3/4/160; 3/5/161; 13/9/498 स्थानांग 2/2
औपपातिक सूत्र 24 प्रज्ञापना पद 6, सूत्र 144
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*96 * अध्यात्म योग साधना *