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योग की उपयोगिता स्वीकार की गई है। वस्तुतः योग से चित्त की एकाग्रता सधती है और उससे ध्येय अथवा लक्ष्य में सफलता प्राप्त होती है। ___योग मानव-जीवन के लिए अत्यन्त ही उपकारी है। इसीलिए आचार्य हरिभद्र ने इसकी प्रशंसा की है तथा इसका महत्त्व इन शब्दों में बताया है
सोगः कल्पतरुः श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः। योगः प्रधानं धर्माणां योगः सिद्धे स्वयं ग्रहः॥37॥ कुण्ठीभवन्ति तीक्ष्णानि मन्मथास्त्राणि सर्वथा। योगर्वावृते चित्ते तपश्छिद्र कराण्यपि॥38॥ अक्षरद्वयमप्येतत् . श्रूयमाणं विधानतः।
गीतं पापक्षयायोच्चैर्योगसिद्धैर्महात्मभिः॥4॥ -योगबिन्दु अर्थात्-योग उत्तम कल्पवृक्ष है, उत्कृष्ट चिन्तामणि रत्न है-यह कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणि के समान साधक की समस्त इच्छाओं को पूर्ण करता है। योग सभी धर्मों में प्रमुख है तथा-सिद्धि-जीवन की चरम सफलता-मुक्ति का अनन्य हेतु है।
योगरूपी कवच से जब चित्त (हृदय) आवृत (अच्छी प्रकार से सभी ओर से ढका हुआ) होता है तो काम (कामदेव) के जो तीक्ष्ण शस्त्र तप को भी छिन्न-भिन्न कर देते हैं, वे योगरूपी कवच से टकराकर शक्तिशून्य तथा निष्प्रभावी हो जाते हैं। भाव यह है कि योगी कामविजेता बन जाता है।
यथाविधि सुने हुए-आत्मसात् किये हुए 'योग' रूप दो अक्षर भी सुनने वाले के पापों का नाश कर देते हैं।
योग का महत्त्व इन शब्दों से भली-भाँति प्रगट हो जाता है।
मोक्ष अथवा निर्वाण प्राप्ति के जितने भी साधन अथवा उपाय भारत के सभी मोक्षवादी दर्शनों ने प्रस्तुत किये हैं, उनमें योग सबसे सरल और प्रबल साधन है। यह कहना भी अत्युक्ति नहीं होगी कि चाहे ज्ञानमार्ग हो या भक्तिमार्ग अथवा कर्ममार्ग-जीव को मोक्ष-प्राप्ति के लिए योग की अतीव आवश्यकता होती है, मुक्ति के लिए योग एक प्रकार से अनिवार्य है। इसीलिए भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि शब्दों का प्रचलन हो गया। ___ भारत के परम मेधावी ऋषि-मुनियों ने स्वात्मानुभूति के लिए अपेक्षित प्रज्ञाप्रकर्ष अथवा अन्तर्दृष्टि के सर्वतोभावी उन्मेष के विकास के लिए अपेक्षित बल का इसी योग-साधना के द्वारा उपार्जन किया था।
* जैन योग का स्वरूप * 91 *