________________
(1) अध्यात्मयोग
जैन आगमों में मोक्षाभिलाषी आत्मा को अध्यात्मयोगी बनने की - योग से युक्त होने की प्रेरणा बार-बार दी गई है। इसका कारण यह है कि चारित्र - शुद्धि के लिए मुमुक्षु आत्मा को अध्यात्मयोग अनुष्ठान की नितान्त आवश्यकता होती है। यही कारण है कि आचार्य ने सर्वप्रथम अध्यात्मयोग का निर्देश मुमुक्षु साधक को दिया है।
अध्यात्मयोग का लक्षण बताते हुए आचार्य ने कहा है
उचित प्रवृत्ति से अणुव्रत - महाव्रत से युक्त होकर चारित्र का पालन करने के साथ-साथ मैत्री आदि भावनापूर्वक आगम वचनों के अनुसार तत्त्वचिन्तन करना, अध्यात्मयोग है। 2
यहाँ अध्यात्मयोग के तत्त्वचिन्तनरूप लक्षण में दिये गये चार विशेषण - ( 1 ) औचित्य (सम्यग्बोधपूर्वक), (2) वृतसमवेतत्वं, (3) आगमानुसारित्व और (4) मैत्री आदि भावना संयुक्तत्व, बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। इन पर विचार करने से अध्यात्म का वास्तविक रहस्य भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है।
मैत्री आदि चार भावनाओं से भावित पुरुष अध्यात्मयोग की भावना को और भी अधिक दृढ़ करता है।
(1) मैत्री भावना द्वारा वह अपने से अधिक सुखी व्यक्तियों के प्रति ईर्ष्या भाव का त्याग करता है।
(2) करुणा भावना से वह दीन-दुःखी प्राणियों के प्रति उपेक्षा नहीं करता, वरन् उनको यथाशक्ति सहयोग देकर उनके कष्ट को मिटाने का प्रयास करता है, उनके साथ सहानुभूति रखता है।
(3) मुदिता अथवा प्रमोद भावना से उसका पुण्यशाली जीवों से द्वेष हट जाता है तथा गुणियों के प्रति उसके प्रशंसा भाव जागते हैं, वह गुणानुरागी बनता है, गुण ग्रहण करता है।
1.
(क) अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवदिट्ठिए ठिअप्पा । (ख) अज्झप्पज्झाणजुत्ते (अध्यात्मध्यान युक्तं ) व्याख्याकार ने इस सूत्र की व्याख्या की है
अध्यात्मनि आत्मानमधिकृत्य आत्मालंबनं ध्यानं चित्तनिरोधस्तेन युक्तः ।
- योगबिन्दु 358
2. औचित्याद्वृत्तयुक्तस्य, वचनात् तत्त्वचिन्तनम्। मैत्र्यादिभावसंयुक्तमध्यात्मं तद्विदो विदुः ।।
82 अध्यात्म योग साधना
- सूत्रकृतांग 1/16/3
- प्रनव्याकरण 3, संवरद्वार