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लिये बिना, किन्तु उन्हीं से विशेष रूप से निःसृत, उसी भावधारा से उद्भूत दृष्टियाँ-योगदृष्टियाँ हैं। ये सामान्यतः आठ हैं-(1) मित्रा, (2) तारा, (3) बला, (4) दीप्रा, (5) स्थिरा, (6) कांता, (7) प्रभा और (8) परा।'
__ संसारपतित दृष्टि-सामान्य दृष्टि अथवा ओघदृष्टि से ऊपर उठकर साधक इन योगदृष्टियों में पहुँचता है।
(1) मित्रादृष्टि'-यह प्रथम योगदृष्टि है। इस दृष्टि के फलस्वरूप साधक के हृदय में प्राणिमात्र के प्रति मैत्री भाव बढ़ने लगता है। वह धार्मिक क्रियाओं को करता तो है किन्तु प्रथा के रूप में करता है। अहिंसा आदि का पालन वह चित्त की मलिनता कम करने की दृष्टि से नहीं; वरन् शुभ कर्मों की दृष्टि से करता है। उसकी विचारधारा यह होती है कि अहिंसा आदि के पालन से पुण्योपार्जन तो होगा ही। __ इसमें राग-द्वेष हल्के होते हैं। दु:खी प्राणियों के प्रति दया व मैत्री के भाव जगते हैं। इसमें जो बोध होता है वह चिनगारी के समान क्षणिक होता है। वह इष्ट-अनिष्ट और हेय-उपादेय का निर्णय नहीं कर पाता।
मित्रादृष्टि में स्थित साधक पातंजल योगसूत्र में निर्दिष्ट योग के प्रथम अंग यम के प्रारम्भिक अभ्यास-इच्छादि यम (यम के अभ्यासगत भेद-इच्छायम, प्रवृत्तियम, स्थिरयम और सिद्धियम) को प्राप्त कर लेता है। अतः इस दृष्टि की तुलना पातंजल योग के प्रथम अंग 'यम' से की जा सकती है।
साधक देवकार्य, गुरुकार्य, धर्मकार्य में अखेद भाव से लगा रहता है। उसके खेद नाम का दोष टल जाता है। जो लोग देवकार्य आदि नहीं करते, उनके प्रति उसे मत्सर-द्वेष नहीं होता।
(2) तारादृष्टि'-तारादृष्टि में मित्रादृष्टि की अपेक्षा बोध कुछ अधिक स्पष्ट होता है। - यहाँ पातंजल योग द्वारा निर्दिष्ट योग का द्वितीय अंग नियम सधता है-अर्थात् शौच, तप, सन्तोष, स्वाध्याय तथा परमात्म-चिन्तन जीवन में फलित होते हैं। अतः इस दृष्टि की तुलना अष्टांग योग के दूसरे अंग 'नियम' से की जा सकती है।
1. योगदृष्टिसमुच्चय, 12-13 2. वही, 21-40 3. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमः। 4. योगदृष्टिसमुच्चय, 41-48 5. शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।
-पातंजल योगसूत्र 2/30
-पातंजल योगसूत्र 2/32
* जैन योग का स्वरूप * 71*