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चित्त-शुद्धि के प्रकार
जैन योग के अन्तर्गत धर्म-व्यापार के रूप में अष्टांग योग' का वर्णन भी हुआ है। इसके क्रम में पाँच प्रकार की चित्त-शुद्धि का विवरण भी दिया गया है। इससे क्रिया-शुद्धि होती है और इनका सही ढंग से पालन करने से साधक की प्रवृत्ति धार्मिक अनुष्ठानों की ओर हो जाती है। चित्त-शुद्धि के पाँच प्रकार हैं
(1) प्रणिधान, (2) प्रवृत्ति, (3) विघ्नजय, (4) सिद्धि और (5) विनियोग।
(1) प्रणिधान-अपने आचार-विचार में अविचलित रहते हुए सभी जीवों के प्रति राग-द्वेष न रखना, प्रणिधान नामक चित्त-शुद्धि है। स्वार्थी, दम्भी, दुराग्रही लोगों के प्रति भी साधक को दुर्भावना नहीं रखनी चाहिए।
(2) प्रवृत्ति-इसमें साधक निर्दिष्ट योग साधनाओं में मन को प्रवृत्त करता है। दूसरे शब्दों में वह विहित अथवा गृहीत व्रत-नियमों तथा अनुष्ठानों का सम्यक्तया. पालन करता है। . (3) विघ्नजय-व्रत-नियमों का पालन करते समय अथवा योग साधना के दौरान आने वाले विघ्नों, कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना विघ्नजय क्रिया शुद्धि कहलाता है। ___ (4) सिद्धि-सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के साथ ही साधक को आत्मानुभव होने लगता है। समताभाव आ जाने से साधक का चित्त चन्दन के समान शीतल हो जाता है, कषायजन्य चंचलता अल्प रह जाती है। इसी को सिद्धि रूप चित्त-शुद्धि के नाम से अभिहित किया गया है।
__(5) विनियोग-सिद्धि के उपरान्त साधक का उत्तरोत्तर आत्म-विकास होता जाता है, उसकी धार्मिक वृत्तियों में दृढ़ता, क्षमता, ओज और तेज आ जाता है, उसकी साधना ऊर्जस्वी हो जाती है। धार्मिक वृत्तियों में चित्त का लगना ही विनियोग चित्त-शुद्धि कहा जाता है। कल्याण भावनाओं की वृद्धि का प्रयत्न ही विनियोग है।
1. प्रणिधिप्रवृत्तिविघ्नजयसिद्धिविनियोग भेदतः प्रायः।
धर्मज्ञैराख्यातः शुभाशयः। पंचधाऽत्र विधो।। 2 षोडशक 3/7-11
-षोडशक 3/6
* जैन योग का स्वरूप *67*