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भाषीटाकासेमतः। (२) दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।। मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः ॥३॥
सब वस्तुओंमें ये तीन वस्तु परम दुर्लभ हैं केवल देवताओंके अनुग्रहसे होते हैं एक तो मनुष्य होना, दूसरा मोक्षकी इच्छा होना । तीसरा परब्रह्मरूपताको प्राप्त होना ॥ ३ ॥ लब्ध्वा कथंचिन्नरजन्म दुर्लभं तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम् । यस्त्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढधीः सह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसदहात् ॥४॥
पूर्वजन्मके पुण्यपुंजसे परम दुर्लभ मनुष्य जन्म और पुंस्त्व पाकर और वेदान्त शास्त्रका यथार्थ सिद्धान्त जानकर जो मनुष्य अपनी मुक्ति होनेका उपाय नहीं करता केवल पुत्र कलत्र वित्त आदि अनित्य वस्तुओंके संग्रहमें भूला है वह मूढात्मा साक्षात् आत्मघातक है ॥४॥ इतः कोन्वस्ति मूढात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति । दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम् ॥५॥
इससे अधिक मूढ कौन होगा, जो दुर्लभ मनुष्य शरीरमें पुरुषार्थ पाकर अपना प्रयोजन संपादन करनेमें आलस्य करताहै ॥ ५॥ वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः। आत्मैक्यबोधेन विनापि मुक्तिन सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेऽपि ॥६॥
शास्त्रोंके पढे पढायेसे, यज्ञ करनेसे, देवताओंके पूजन करनेसे, काम्यकम्र्मोंके करनेसे और देवताओंके सेवन करनेसे सैकड़ों ब्रह्मके बीतनेपरभी आत्मज्ञानके विना मुक्ति नहीं होती किन्तु आत्मज्ञान होनेहीसे मोक्ष होता है ॥ ६॥