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भाषाटीकासमेतः। (६१) केनापि मृद्भिवतया स्वरूपं घटस्य संदर्शयितुं न शक्यते ।अतो घटः कल्पित एव मोहान्मृदेव सत्या परमार्थभूता ॥ २३१ ॥
मृत्तिकासे भिन्न घटका स्वरूप कोई पुरुष नहीं दीख सकताहै इसलिये घट और घटका रूप ये सब मोह कल्पित हैं परमार्थभूत मृत्तिकाही सत्य है ॥ २३१॥ सद्ब्रह्मकार्य सकलं सदैव तन्मात्रमेतन्न ततोऽन्यदस्ति । अस्तीति यो वक्ति न तस्य मोहो विनिर्गतो निद्रितवत्प्रजल्पः ॥ २३२ ॥
सत्यस्वरूप ब्रह्मसे उत्पन्न जो यह सकल जगत् है सो भी सत्यही है क्योंकि ब्रह्मसे अन्य दूसरा कुछ नहीं है जो कोई कहे कि, ब्रह्मसेभी भिन्न कोई वस्तु है उसको समझना कि इसका मोह नहीं गया निद्रित मनुष्यकी नाईं इसका मिथ्या प्रजल्पना है ॥ २३२॥ ब्रह्मैवेदं विश्वमित्येव वाणी श्रौती ब्रूतेऽथर्वनिष्ठा वरिष्ठा । तस्मादेतद्ब्रह्ममात्रं हि विश्वं नाधिष्ठानाद्भिवतारोपितस्य ॥ २३३ ॥
सबसे श्रेष्ठ जो अथर्वण वेद वाणी है सो कहती है कि सम्पूर्ण विश्व ब्रह्ममय है इसलिये यह विश्व ब्रह्मसे भिन्न नहीं है जैसे रज्जुमें जो सर्पका आरोप होता है वह आरोपित सर्प रज्जुसे भिन्न नहीं है तैसे ब्रह्ममें जो अज्ञानसे संसारका आरोप हुआ है यह आरोपित संसारभी ब्रह्मसे भिन्न नहीं है ॥२३३ ॥
सत्यं यदि स्याजगदेतदात्मना न तत्त्वहानिर्निंगमाप्रमाणता । असत्यवादित्वमपीशितुः स्यानतत्रयं साधु हितं महात्मनाम् ॥ २३४ ॥