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________________ ( १३० ) विवेकचूडामणिः । ब्रह्मज्ञान होने पर ऐसा मालूम होता है कि, यह जगत् कहां गया किसने इसको छिपालिया किसमें लीन हुआ अभी मुझे दीखताथा अब नहीं दीखता बडी आश्चर्य की बातें हैं ॥ ४८४ ॥ किं हेयं किमुपादेयं किमन्यत्कि विलक्षणम् । अखण्डानन्दपीयूषपूर्ण ब्रह्ममहार्णवे ॥ ४८५ ॥ कौन वस्तु त्याज्य है और क्या ग्राह्य है और क्या विलक्षण है ऐसेही अमृतसे परिपूर्ण ब्रह्मानन्द महासमुद्र में मालूम होता है || ४८५ ॥ न किंचिदत्र पश्यामि न शृणोमि न वेद्मयहम् | स्वात्मनैव सदानन्दरूपेणास्मि विलक्षणः || ४८६|| अब यहां मैं कुछ नहीं देखता हूं न सुनता हूं न जानता हूं अपनेहीमें सदानन्दरूपसे विलक्षण मालूम होती हूँ ॥ ४८६ ॥ नमो नमस्ते गुरवे महात्मने विमुक्तसङ्गाय सदुत्तमाय । नित्याद्वयानन्दरसस्वरूपिणे भूम्ने सदाSपारदयाम्बुधाम्ने ॥ ४८७ ॥ सङ्गसे रहित समीचीन उत्तम नित्य अद्वितीय आनन्दरस स्वरूपी अपारदयाका समुद्र ऐसे महात्मा श्रीगुरुको पुनः पुनः नमस्कार करता हूँ ॥ ४८७ ॥ यत्कटाक्षशशिसान्द्रचन्द्रिकापातधूतभवतापजश्रमः । प्राप्तवानहमखण्डवैभवानन्दमात्मपदमक्षयं क्षणात् ॥ ४८८ ॥ जिस श्रीगुरुमहाराजका दृष्टिरूप चन्द्रमाका सवन किरणोंका सम्बन्ध होनेसे संसारी तापसे उत्पन्न जो खेद रहा उससे छूट कर क्षपसे रहित अखण्ड विभवानन्द जो आत्मपद है उत पदको क्षणमात्रमें मैं प्राप्त हुआ ।। ४८८ ।।
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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